अंधेरे का रोष
अंधेरे का रोष
रौशनी से चमकती जुगनुयी आँखों के
पीछे छुपा बैठा ख़ौफ़ देखा है कभी,
हर नज़र से बचके एक कोना पकड़े,
दुबक के पड़ा रहता है,
ख़ौफ़ है ना आखिर सिर
उठाने का ज़ज़्बा होता तो,
अस्तित्व ही बदल जाता ना उसका,
चौकाने की बात यह है की छुपने की जगह,
उसने भी रौशनी के पीछे ही रखी होती है,
अंधेरे का रोष डर उसकी भी नसें कचोटता तो है।