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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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ठहरे साहित्यकार

ठहरे साहित्यकार

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तुम ठहरे साहित्यकार

मैं ठहरा आम आदमी

एक ललक है मेरी

और साथ है मेरे मेरी जिज्ञासा।

जो मैं नहीं देख पाता

जो तुम नहीं देख पाते

वो सब लिये देख लेती है

हमारे लिये

और मैं उसे शब्द देने की कोशिश में इतना तल्लीन हूँ

कि अजनबी सा हो गया हूँ तुमसे।

कभी मिलो न‌ अपने साहित्य में

अपनी तरह

मेरे लिये तुम्हारी कालजयी रचना

तुम्हारे सामने

कोई अहमियत नहीं रखती।


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