"अधूरी भीगन "
"अधूरी भीगन "
बारिश हो रही थी —
बूँदें जैसे किसी पुराने घाव पर
धीरे-धीरे नमक घोल रही हों।
तुम सामने थे,
पर जैसे परछाईं से बात कर रहा हूँ।
मिलना भी कैसा था —
न हँसी, न राहत,
बस एक अजीब-सी थकान,
जो आँखों से दिल तक फैल रही थी।
हवा में नमी थी,
पर हमारे बीच एक सूखी दीवार खड़ी थी।
शब्द गुम थे,
जैसे किसी ने ज़ुबान से अर्थ छीन लिया हो।
फिर अचानक तुम चले गए,
पीछे बस पाँवों के निशान
और कुछ अधूरे वाक्य छोड़कर।
मैं बारिश में खड़ा रहा,
भीगता, कांपता, सोचता —
क्या बिछड़ना हमेशा इतना
धीमा और शोरगुल भरा होता है?
बारिश थम गई,
पर भीतर की बरसात
अब भी जारी थी…
