आवेग
आवेग
मनुष्य जब कभी भी रौद्र रूप है धरता।
कोई काम सोच समझकर नहीं करता।
आवेग में सबसे पहले विवेक है छिनता।
मनुष्य को आवेग में सुकून नहीं मिलता।
मनुष्य की आवेग में बुद्धि हो जाती भ्रष्ट।
वह स्वयं और दूसरों को पहुंचाता है कष्ट।
आवेग में छोटे बड़े का भेद नहीं है दिखता।
मनुष्य आवेग में केवल चिल्लाता चीखता।
मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है आवेग।
इसके परिणाम होते हैं तीव्र जैसे वायु वेग।
आवेग में मनुष्य को लग जाते हैं दुर्व्यसन।
नहीं छूटते फिर चाहे जितने भी करें जतन।
मनुष्य आवेग की अग्नि से स्वयं को जलाये।
शांत मन से अच्छा बुरा सोचे तो आराम पाये।