आतंक से यारी है गद्दारी
आतंक से यारी है गद्दारी
बयाबान हो गया हर वह हर कोना
जहां आतंक के साए में सिमटा पड़ा है घरौंदा
कभी शगुफ़्ता हुआ करती थी-
केसर की क्यारियां,
रोफ, छकरी, निमाई की धुन से गुलज़ार जो रहती थी घाटियां,
डर के साए में चुप हो गई है वो वादियां।
आगोश में हैवानियत के,
भूल कर इबादत -ए -इंसानियत
फ़र्द आतंकीय दलदल में धंसता जा रहा हैं।
आतंक से यारी इंसानियत से गद्दारी है,
यह वह भूलता जा रहा है।
बन सय्याद, अपनों का ही कर शिकार,
बारूद के ढेर पर रख अपनों के सपनों को, क्या वह हासिल करना चाह रहा है?
भ्रमित मन उसका क्यों नहीं समझ पा रहा है,
अपनों के ख़ून से वह हाथ अपने रंगता जा रहा है,
नाम पर जिहाद के, दूषित सोच की कठपुतली बनता जा रहा है,
जिहादी का तमगा पहन कर,
आतंक के गर्त में गिरता जा रहा हैं।
इंसानियत से गद्दारी कर ,आतंकवाद से यारी निभा रहा है।
ख़ुद को कर फ़ना कौन- सा कर्तव्य निभा रहा हैं?
फ़र्ज़ को भूल फ़र्द,
तबाही की राह में चला जा रहा हैं,
अपनों को ही दर्द के समंदर में डुबाता जा रहा हैं।
नादान! समझता यह नहीं कि-
ख़ुदा की निगाहों में गिरता जा रहा हैं,
इंसानियत से कर बेवफाई,
गद्दार वह कह ला रहा हैं।
