कहने भर के लिए ही सबकुछ है
कहने भर के लिए ही सबकुछ है


कहने को तो मेरे पास सबकुछ है,
दोस्त है, रिश्तेदार है, अपने हैं, पराये हैं।
लेकिन ये सब कहने भर के लिए सबकुछ है,
जब टटोलता हूँ हकीक़त अपनी तो सच्चाई से वाकिफ़ हो जाता हूँ।
जब जिसकी जरूरत महसूस होती है उस समय पास महफूज कोई नहीं होता ।
तो फिर कैसे मैं यकीन कर लूं की मेरे पास कुछ है ?
हकीक़त तो यही बयां करती है की मेरे पास कुछ नहीं।
जमाने की दरियादिली की शराफ़त देखिए,
लोग अब हमें कहने लगे हैं कि हम बहुत भाव खाने लगे हैं।
उन सज्जन लोगों से मैं पूछता हूँ की तुम्हारे बाज़ार में मेरी कीमत ही क्या है?
हमारी भाव ही
क्या है तेरी महफ़िल में ?
मेरी औकात ही क्या है तेरे रुतबे के आगे ?
गर हैसियत आज मेरा भी होता कुछ इस जमाने में,
तो मैं आज यूं इधर- उधर मारा नहीं फिरता ।
दर- दर की ठोकरें नहीं खाता यूं ही बेवजह।
इस दुनियावालों की दरियादिली से पहले ही विश्वास उठ चुकी है मेरी,
आपसे मन भर जाने के बाद,
अपनी निज हित सध जाने के बाद,
ये लोग एक आपकी एक खामियाँ निकालकर
किनारा कर लेते हैं आपसे ।
लोगों की बद- दुआओं से ही तो मेरी तकदीर बदली है ।
अभाव के कोरे पन्नों पे ही तो मेरी अपनी खुद की एक अलग तस्वीर बदली है।