एक मुलाक़ात : सैलाब-ए-हजूम
एक मुलाक़ात : सैलाब-ए-हजूम
होने लगीं हैं नमीं से
सर्द-सी मेरे पलकें,
आँखों ने इन्हें रिहा
जो कर दिया अब,
बेशक़ सागर-सी
गहराई है आँखों में मेरी,
पर इन्हें छलकने से
रोक नहीं पाऊँगी अब,
उमड़ा है सैलाब-ए-हजूम
इस क़दर ग़मों का,
कतारें छोड़ गया बूँदों की
मेरे आरिज़ पे अबI
दास्तां-ए-क़िस्सा
क़तरा क़तरा,
बसा मेरी रूह में,
जो वक़्त रोक ना
पाया था वो लम्हा तब,
मचलने लगे हैं लबों पे
ठहरे तरन्नुम-ए-जज़्बात,
गज़ल बनने लगे कोरे पन्ने,
लफ़्जों में बसी अब
बिखरी हैं बूँदें बेहिसाब,
टूटे आइने-सी पलकों पर
भीगा है चेहरा सारा
आँसुओं का बना है हिज़ाब अबI