ना जानूँ मैं
ना जानूँ मैं
किस विषय पर बोलूँ
ना जानूँ
बात खुल कर करूँ,
या मूक रहूँ
ना जानूँ
दबी दबी सी जुबां है
सुनता कौन यहाँ है
खामोशियों को
कोई पढ़ता नहीं
लफ्जों को कोई
समझता नहीं
किस विषय पर
लिखूं, ना जानूँ
ग़म पे लिखूं या
दास्ताने ज़ख्म लिखूं
ना जानूँ
आँखो में सूनापन है
सजे लबों पे सवाल है
अपनापन किसी से
मिलता नहीं
मन को भी कोई
पढ़ता नहीं
लफ्ज़ तो बहुत है
पर कोरे पन्ने कहाँ है
रूठी है जिन्दगी
खुद को खो कर
जो की थी बन्दगी
माना सबको
अपना यहाँ
पर प्यार का
कोई मोल नहीं
किस विषय पे बोलूं,
ना जानूँ
प्यार पे बोलूं,
या नफरतों पे
ये भी ना जानूँ
