इक पुकार...फ़लक से
इक पुकार...फ़लक से
बैठी हूँ पलकें बिछाए
की कब फ़लक मुझे
गले से लगाए
न जाने
कब दस्तक हो
की चले आओ तुम
अब मेरी आगोश में
तुम्हें भी फ़लक पे सजा दूँ
उम्र भर मांगती रही
तुम टूटे तारे से दुआ
आओ तुम्हें मैं फ़लक
का ध्रुव तारा बना दूँ
बैठी हूँ हाथों को
उपर उठाए
कब मेरी दुआ
कबूल हो जाए
न जाने
कब आए इक आवाज़
कि चले आओ
बेदाग़ कोरी चादर
में लिपट कर
मेरी पनाह में
इक उम्र से अश्कों से
भीगती रही हो तुम
आओ तुम्हें मैं आसमानी
परियों संग चाँदनी में
नहला दूँ
बैठी हूँ इक आस लगाए
कि कोई फरिश्ता कब
फ़लक से उतर आए
माना कि
इक उम्र बीती हैं
मेरी इस ज़मी पे
पर मैंने भी क़ीमत
चुकाई हैं
पल पल यहाँ अपनी
मुस्कुराहटे लूटा के
जाने क्यूँ अब
नींद आती नहीं पर
सोना चाहती हूँ मैं
गहरी नींद में
इक पुकार
हौले से सुनाई दी
मेरे कानों में
की चले आओ
फ़लक पे
की तुझे सतरंगी झूले
पर मीठी नींद सुला दूँ
बैठी हूँ पलकें बिछाए
की कब फ़लक मुझे
गले से लगाए

