दिखावा
दिखावा


सफल साधना कैसे हो जब साधक ही अधनंगा है।
अपनी-अपनी सूखी धरती, अपनी ही जलधारा है
अपनी अपनी गर्दिश सबकी, अपना सुप्त सितारा है।
दो पाटे हैं एक देह है, ये तो आखिर पिसनी है
भौतिकता के पीछे़ पड़कर, आखिर एड़ी घिसनी है।
ज्ञान बचा बस नीरस जग में, बाकी रंग-बिरंगा है
सफल साधना कैसे हो जब साधक ही अधनंगा है।
मन के राम गये हैं वन को, सिंहासन पर रावण है
किसके मन में काम जगा है, किसका धर्मपरायण है।
मन-मंदिर में किसकी मूरत, किसकी पूजा होती है ?
माँ-पत्नी-बहनें व्याकुल हैं, बेटी छुपकर रोती है।
कहाँ कठौती में गंगा जब, नहीं हृदय ही चंगा है
सफल साधना कैसे हो जब साधक ही अधनंगा है।
मस्जिद की सीढी़ पर कितने, वृद्ध भूख से मरते हैं ?
कितने बालक मंदिर बाहर, भिक्षा माँगा करते हैं ?
समय नहीं कुछ कर पाने का, छुट्टी शिमला में बीते
मेरी चाहत है ये बचपन, गिनती-इमला में बीते।
लेकिन सबका हृदय भरा है, गली गली में दंगा है
सफल साधना कैसे हो जब साधक ही अधनंगा है।
कितने पापी आते-जाते, कितनों के ही पाप धुले
गंगा पावन कैसे हो जब, इतने दुख-संताप घुले।
कहीं बालिका चार माह की, इस गंगा में बहती है
कहीं निशानी गुप्त प्रेम की, व्यथा चीखकर कहती है।
लुप्त हो रही इस धरती से, इसीलिए तो गंगा है
सफल साधना कैसे हो जब साधक ही अधनंगा है।