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Sudhir Kumar Pal

Tragedy Inspirational

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Sudhir Kumar Pal

Tragedy Inspirational

फ़लक को छूते शाख़

फ़लक को छूते शाख़

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फ़लक को छूते शाख़ जाने कहाँ खो गए,

वो लहराती बेलें और गुलाब जाने क्यों बेज़ार हो गए...


टीन के डब्बे और कचरे का ढेर,

अब तो यही गुलिस्तां हो गए...


उड़-उड़ के जो आती थी बू अज़ीज़ गुलों की,

पहचाने उसे अब ज़माने हो गए...


रंगों से लेस जो रहती थी वादियाँ,

गंदगी से उसके भरे नज़ारे हो गए...


सीना चीर के धरती का जो कभी थे खड़े,

धूमिल दरख़्त वो सारे हो गए...


बाग़ों में चहकती नन्ही-नन्ही चिरइयाँ,

किस्से उनके काफी पुराने हो गए...


मीनारें ही मीनारें हैं हर तरफ चूमती गगन को,

रखने को पाँव कम ज़मीन के आसरे हो गए...


चिमनियों से उगलता हुआ धुआं,

यही अब तो बादल न्यारे हो गए...


कल-कल जो बहती थी मीठे पानी से लबालब,

घुले ज़हर से उस नदी के अब प्याले हो गए...


काश कि कर पाता माहताब-ओ-सितारों

का दीदार तू भी 'हम्द',

लगता है ख़्वाहिश ये अब ख्वाब हो गए...


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