अपनों के ग़म ने इतना मारा...
अपनों के ग़म ने इतना मारा...
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अपनों के ग़म ने, इतना मारा इस दिल को,
के ग़ैरों के ज़ख्मों की, जग़ह तक ना बची...
दर्द के ताबूत, हसरत-ए-इश्क़, कभी देता था ज़माना,
आज दिल-ए-आँगन में, इक लिफ़ाफ़े की जग़ह तक ना बची...
कभी माहताब पर लहराते थे, जो इश्क़-ए–परचम,
आज टूटे तारे के दीदार की भी, उम्मीद तक ना बची...
रस्म-ए-वफ़ा ता उम्र, निभाना जो जानते थे वो,
नाम संगेमरमर पे, उकेरना जो जानते थे वो,
हशर हुआ ऐसा, वो बदहाली यूँ छायी,
कि लिखने को दास्तां-ए-मोहब्बत, उनके रेत तक ना बची...