जब लगी हो आग़ जिस्म की
जब लगी हो आग़ जिस्म की


जब लगी हो आग जिस्म की
तो बीमारी-ए-दिल इश्क़ भी क्या करे।
जब दिल ही ना चाहे फ़ितरत में मचलना तेरी
तो मरमरी तेरा हुस्न भी क्या करे।
ये रंग-ओ-जमाल-ओ-रूह-ओ–मस्ती
अब कहाँ सोच-ए-मशक्क़त भी क्या करे।
फ़िराक-ए-हस्ती मेरी जब रहे तेरा हुस्न
तैश-ए-अदावत कोई तब भी क्या करे।
चिलमन-ओ-वफ़ा-ओ-सुकून-ए-हसरत 'नाज़'
बाज़-ए-ख़िलवत हो भला कोई तब भी क्या करे।