मानव और सृष्टि
मानव और सृष्टि
बीत गए युग कितने देखो,
मानव कितना बदल गया,
खेल आग से करता आया,
पर क्या अब वो सँभल गया?
आज चाँद तक मानव पहुँचा
पर मानव मन वहीं खड़ा,
युद्ध बिना क्या चैन उसे है,
क्यों जिद्दीपन भरा पड़ा?
मौत सभी जीवों को आती,
मानव पर बिन मौत मरे।
मानव मन से सकल जगत के,
जीव रहे बस डरे-डरे।
ये धरती है उस ईश्वर की,
सब का इसमें है किस्सा।
मानव नित अपनी साजिश से,
छीन रहा सबका हिस्सा।
सभ्य मनुज जितना होता है,
उतना बर्बर बन जाता।
झूठी शान दिखावे में वो,
इस धरती को तड़पाता।
अब भी अगर नहीं चेता तो,
अंत सुनिश्चित है लिख लो।
काल समाहित होगी धरती,
इस धरती का कल लिख लो।