आँगन
आँगन
वो गाँव वो आबो हवा वो ठाठ अब विदेशी हो गये,
आसमान छूने की चाह मेँ ज़मीं से दूर होते गये।।
वो आँगन वो खाट वो दहलीज,लोग अब विलुप्त हो गए,
वातानुकूल मेँ पलंग पर लेट ज़िन्दगी को ही समेट लिए।।
वो मवेशी वो बाड़े वो खेत-खलिहान चित्रों मेँ रह गये,
वजूद की पहचान थे जो इतिहास के पन्नों मेँ दर्ज़ होते गये।।