ना हम कभी सुधरेंगे
ना हम कभी सुधरेंगे
जानेवाले चले गये मायूस होकर
आनेवाले आ गये सोच समझकर
उंगली पकड़कर गर्दन तक पंहुचे
सरपर चढ़े जाने - अनजाने में
क्या फर्क पड़ता हैं भाई कौन हैं ?
गोरे हो या काले, इधर के हो या उधर के
तानाशाही, भ्रष्टाचार , महंगाई , बेरोजगारी
जनता बेचारी देखते रहे हमेशा की तरह
खानेवाले खा गये जी भरके , दिल खोल के
अनपढ़ नासमझ अंधभक्त बेचारे क्या करे ?
फेकी रोटी ,रहमोकरम पर जीते रहे गुलाम बनकर
खाया पिया कुछ नहीं ,खर्चा आया बारह आने
रामायण हो या महाभारत ,या कलयुग का डंका
स्त्री हो या जनता अग्निपरीक्षा तो देनी ही हैं
कभी मजहब के नाम पर , कभी देश प्रदेश
कभी झंडे के निचे तो कभी डंडे से पीटकर
ना हम कभी सुधरेंगे ना ही कुछ सोचेंगे
बस यूँही लड़ते रहेंगे पागलो की तरह
लोकतंत्र के आड़ में ठोकतंत्र को ही पोसेंगे
ताली थाली बजाकर दिनरात गाली खाएंगे।
