हास्य कविता मेरी मर्ज़ी
हास्य कविता मेरी मर्ज़ी
वास्तव में बात तो कुछ हुईं नहीं थी,
झगड़ना तो हमारी आदत बन गयी।
ज्वालामुखी से फट पड़े कार्यालय से आते ही,
जूते करीने से रखो,मैंने तो कहा बस इतना ही।।
ये ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे तो मैं भी भड़क गयी,
ग़ुलाम समझ रखा है क्या!गुस्से से में बोली।।
तू-तू,मैं-मैं करते करते बात तो बढ़ती गयी,
मैंने ना चाय का पूछा ना ही लाकर दिया पानी।।
बस मेरी यही अदा आग में घी का काम कर गयी,
बोले,मेरा खाना मत बनाना खा लूँगा बाहर ही।
वाह!पूरा दिन घर में मैं खटती मेरी फ़िकर ही नहीं,
तंज़ मारने का स्वर्णिम अवसर भला कैसे जाने देती!
बोले,क्यों ज़ुबान चलाते-चलाते पेट भरा नहीं,
अब तो नहीं लेकर जाऊंगा तुम्हें,मेरी मर्ज़ी।।
ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते हुए मैं भी जोर से रोने लगी,
बस मेरे चंद आँसू क्या बहे इनकी तो हालत पतली हुईं।
प्यार से बोले,ऑफिस से आते ही तुम क्यों रोज झगड़ती?
मैंने भी विनम्रता से कहा... वो वो जी मेरी मर्ज़ी।
खिलखिलाकर हँसते हुए इन्होने गाल पर चिकोटी काटी,
मैंने शरमाकर कहा झगड़ने से मिलता विटामिन ई (एनर्जी)।
