व्याकुल मन
व्याकुल मन
मैं आकुल-व्याकुल घूम रही,
इस दुनिया में कुछ ढूंढ रही मैं,
प्रकृति की गोद में खेल रही मैं,
पहले की यादों में डूब रही मैं,
आकुल-व्याकुल घूम रही मैं।
सुबह-सुबह सूरज आया,
स्वप्न जो अब टूट गया,
पीछे कहीं छूट गया।
नई सुबह -नया दिन हो गया,
सपना पाने को मन घूम गया।
थी क्या पाने की चाह जो,
ढूंढ रही थी ,
सपने में क्यों थी व्याकुल,
समझ में आया,
माता-पिता से थी बिछड़ गई,
तेज हवाओं के झोकों में,
अब चाह जागी परिंदा बन उड़ने की,
उड़कर आकाश की ऊंचाई चूमने की,
नाप लूं एक पल में दुनिया सारी,
पहुंच जाऊंगी मैं पल-भर में।
