औरंगाबाद ट्रैन हादसा
औरंगाबाद ट्रैन हादसा
आँखें ही नहीं, आज दिल भी रोया है,
कितनों नें आज अपनों को खोया है,
जिंदगी को संवारने निकले थे घर से,
वही जीवन आज मौत के नींद सोया है,
चिथड़े पड़े है उनके, ख़ून से सनी रोटी है,
नसीब न हो सका उनके एक टुकड़ा भी,
चले थे जो घर से, घर को ख़ुशियाँ देने को,
ख़बर दिया उन्होंने मौत पे उनके रोने को,
बूढ़े बाप का सहारा छीन गया, गोद सुनी हुई,
सिंदूर उजड़ी, तो किसी का बाप का साया,
ये भी एक इंसान ही थे, कोई मज़दूर नहीं थे,
मजबूरी नें ही उन्हें मज़दूर बना दिया था,
ये प्रश्न है उठता आखिर वो मजबूरी क्या थी,
जिस वजह से उन्हें पलायन करना पड़ा,
उनकी आत्मा चीख कर सवाल करेगी सत्ता से,
की आखिर हमारा वो भीषण दोष क्या था,
आखिर क्यों हमें अपनी जन्मभूमि छोड़ना पड़ा,
जिसका मोल अपने प्राणों को दे कर देना पड़ा,
शायद उनके पास इन प्रश्नों के उत्तर निरर्थक हो,
"दीपक" पूछता है, उनका जीवन सार्थक कैसे हो...?
