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Mahendra Kumar Pradhan

Tragedy

4  

Mahendra Kumar Pradhan

Tragedy

रो रहा आसमान।

रो रहा आसमान।

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विकाश के रफ़्तार में

नव नव उद्योगों की स्थापना,

तेजी से जमाने लगे पाँव।


दिन प्रतिदिन लोगों में

आर्थिक उन्नति के सपनों से

शहरों में बदलने लगे गांव।


जंगल अविरत कटने लगे

कारखाने निरन्तर बसने लगे,

छुप छुप के रोने लगी धरा।


नदियां प्रदूषित होने लगीं

हवाएँ जलने जलाने लगीं

प्रकृति होने लगी श्रीहरा।


गगन की नीलिमा लूटने लगी,

दूषित हवा में दम घुटने लगी,

धूमिल हो चुका आसमान।


धूल, धुआँ और दूषित पवन

तापमान की पारा चढ़ा कर

नभ को जलाए अंगार समान।


शुक्र करो आसमान का

उसे चैन व अमन पसंद है ,

रे मनुज! प्रतिशोध नहीं।


वरना तुम्हारा नामो निशान

मिट जाता भूगोल से,

इसका तुम्हें बोध नहीं।


खगोल को रुलाने वाले,

और वायु को जलानेवाले ,

तुम अधमों को ज्ञान कहां ....


उनकी नियत बदली तो

सबका खाक होगा और

राख हो जाएगा पूरा जहां।


तुम्हारे विलासिता के शौक तले

स्वार्थ यज्ञ की आहुति में

देखो रो रहा है आसमान।


अदूरदर्शी निर्णयों से पृथ्वी

श्मशान बन जाने की शंका में

देखो रो रहा है आसमान।



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