कि तुम मेरी नहीं हो
कि तुम मेरी नहीं हो
पता है तुम मेरी नहीं हो रस्मों रिवाजों में
पर मानता नहीं दिल मेरा
कि तुम मेरी नहीं हो।
नसीब में तुम थी नहीं तो मिली नहीं जीवन में
पर दिल मानता ही नहीं
कि तुम जीवन मेरी नहीं हो।
पता है तुम्हारी मांग की सिंदूर मैंने भरी नहीं है
फिर भी मानता नहीं दिल मेरा
कि तुम मेरी नहीं हो।
क्योंकि माथे की बिंदी तो आज भी
तुम मेरी पसंद की ही लगाती हो
फिर ये कैसे मान लूं
कि तुम सनम मेरी नहीं हो ?
माना कि फासला बढ़ गया है
अब तेरे मेरे बीच में
तुम अर्धांगिनी हो किसी और की
मेरी नहीं हो।
पर दिल को ये स्वीकार नहीं
कि तुम मेरी संगिनी नहीं हो।
माना कि तुम कुलस्वामिनी
किसी की परिणीता हो
पर थी तो प्रेमिका मेरी
फिर ये कैसे मान लूं
कि तुम मेरी नहीं हो ?
मैंने सदा चाहा तुम्हें
बहारों से भरी जीवन तुम्हारी
तुमने भी मुझे दिल से चाहा
और चाही खुशियां मेरी
फिर ये कैसे मान लूं
कि तुम मेरी नहीं हो ?
आज भी जब सुनता हूं तुम तकलीफ़ में हो
दर्द मुझे होता है
खुदा से खैरियत की दुआ मांगता हूं।
तब दिल क
हता नहीं
कि तुम मेरी नहीं हो।
माना कि तुम मुझे कुछ अब दे नहीं सकती
मेरे दुर्दिन में मेरे चौखट पर आ नहीं सकती।
पर सुना है तुम भी बेचैन रहती हो
मेरी खुशियों की दुआ मांगती हो
फिर ये कैसे मान लूं
कि तुम मेरी नहीं हो ?
माना कि तुम किसी और की शैय्यासंगिनी हो
इस जीवन में वो अधिकार अब मुझे नहीं है।
पर तुम तो मेरी जीवन की रागिणी हो
मेरी प्रातः स्मरणीया प्रेरणादायिनी हो।
फिर ये कैसे मान लूं
कि तुम मेरी नहीं हो ?
तो क्या जहां दैहिक संपर्क नहीं वहां प्रेम नहीं होता ?
प्रेमिका परपत्नी बन जाए तो उसके लिए दिल नहीं रोता ?
क्या इतना आसान होता है प्रेमी को भूल जाना
या बस दिखावा होता है प्रेम
और भूल जाने का ढोंग रचाना ?
माना कि बंधन है समाज
मर्यादा और संस्कार का
लिखित दस्तावेज़ नहीं तुम्हारे तन पर
मेरे अधिकार का।
पर मन और दिल तो आज भी तुम्हारे साथ रमता है
भावना और स्वप्न में तुम्हारी ही प्रेम सरसता है।
फिर कैसे मान लूं
कि तुम मेरी नहीं हो ?
दुनिया से ना कहूं सही
इसे राज बना कर रख लूं।
पर अपने आत्मा से झूठ कैसे कहूं ?
कि तुम मेरी नहीं हो ।