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Mahendra Kumar Pradhan

Romance

4  

Mahendra Kumar Pradhan

Romance

विरह की आग

विरह की आग

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310


कृष्ण घन ने सुन ली है 

मोर पपीहे की पुकार

झमाझम बरस रही है 

वर्षा की फुहार 

शीतल गयी है जलन

धरती के सीने की आग 

पर अब भी धधक रही है सीने में 

विरह की आग ।

बदल चुकी है उष्म लू 

शीतल पुरवाई में 

कूक रही है कोयल मधुगीत

रिमझिम अमराई में 

मधुमास प्रतीत हो रहा सावन

देख बादल राग 

पर अब भी कोई विरहिणी में है 

दहकता विरह की आग ।

परदेशी बादल लौट आए हैं 

अपने आंगन के द्वार 

मोर पपीहा तन मन प्रमुदित 

देख काली घटा बौछार 

सारस - सारसी , हंस - हंसराली 

युगल प्रेम में नाचत निराली 

घर कबूतर छत के ऊपर 

चूम रहीं है मुख परस्पर 

देख नयन भर आये 

स्मरि पूर्व अनुराग 

धधक रही है विरहिणी वक्ष में 

प्रिय विरह की आग ।


खत्म हो चुकी सब की अपेक्षा 

अब सावन है मनभावन 

राग रागिणी आनंद उल्लास में

मुखरित है जगजीवन ।

फिर भी कोई राह निहारे 

अंतर्मन में आश न हारे 

देर रात तक खोल झरोखे 

अनिद्रित खा हवा के झोंके 

रात अकेली बरसात अकेली 

दहक रही है आग 

दफन हुई नहीं है अब तक 

 विरह प्रेम की आग ।


बहती आंखें बारिश में घुल 

अश्रु न पहचाना जाए 

दर्द दिल में ज़ख्म कर जाए 

नित भीगे बरसात में 

पर तनमन की आग 

बुझ न पाए  ।

परदेशिया मनरसिया 

क्यों नहीं लौट के आए ?

एक यही शंका सताए ।

बरखा सावन रिमझिम मौसम 

तनमन में जगाए विराग 

दफन हुई नहीं है अब तक 

दहक रही है

विरह प्रेम की आग । 



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