धूल का गुबार
धूल का गुबार
शहर के चौड़े रास्तों पर जाते हुए
देखता हूँ धूल से धूसरित पेड़ो को
जो खड़े है रास्तों के दोनो ओर
खामोशी से बिल्कुल बेआवाज।
खयाल आता है मुझे
धूल के गुबार से भरे इन पेड़ों का
बिना किसी गुनाह के
धूल जो कालिख सी मानिंद उन पर लग गयी है
वो धूल से धूसरित सारे पेड़
खामोशी से हवा की ताल पर हिलते हुए
सवालिया नज़रों से
अपनी बेगुनाही की
मुझे कैफियत मांगते हैं
मैं इधर उधर निगाहों से
उन्हें नज़रअंदाज करता हूँ
उन सारे सवालों को भी
क्या मैं उनको कह सकता हूँ
कि हम इंसानों ने गाड़ियाँ चलाकर
डीजल की जहरीली हवा उगलकर
कभी हरे भरे रहे इन पेड़ों को
उन हरे भरे पेड़ों के प्यार को
और उनकी छाँव को भुला कर
धूल से काला कर दिया है.....
