चुनावी माहौल
चुनावी माहौल
आया है माहौल चुनावी,
जनता असमंजस में ,
किसको चुने किसको नाही,
हैं शौकीन सभी ताज के,
इसलिए देते लाली पॉप पेंशन, मोटर, लैपटॉप का,
कहते हम आयेंगे सत्ता में,
तो आपके मुद्दों पर होगी चर्चा,
नहीं मात्र चर्चा,
होगा पूर्ण समाधान,
इसी बीच जब जनता जातिवादी गुट में बट जाती है,
होता मिजाज गरम हर आदमी का,
युवा खून में उबाल आता है,
अपने एक वोट से भविष्य बदलने को,
लड़ जाते हैं आपस में,
व्हाट्स एप, फेसबुक ,ट्विटर वार का हिस्सा बन,
एक दूजे को गलत ठहराते हैं,
ब्रेन वाश करने को आतुर हो जाते हैं,
अपने जातिगत चेहरे को ,
जीताने को बाकी सबको गलत ठहराते हैं,
चहेते चेहरे की अच्छाई गिनवाते हैं,
सत्ता के चहेतों के साथ ब्रेन वाश कार्यक्रम में ,
अनजाने में ही शामिल हो जाते हैं।
जीता अपने चहेते चेहरे को सिंहासन पर बैठते हैं,
फिर जब आती बात मुद्दों और रोजगार की,
तो विकास के झूठे पुलिंदों को बांध मन बहलाते हैं,
कुछ जागरूक सर पीट ,
हाथ पांव मलते रह जाते हैं,
नहीं आता किसी के हाथ कुछ इस जातिवादी राजनीति में,
फिर भी अपनी जाति का गौरव बढ़ाने को,
वोट जातिगत चेहरे को ही फिर से दे के आते हैं।
जातिगत चेहरे को सत्ता में शीर्ष पर काबिज देख,
मन में उनके लड्डू फूटते हैं,
नहीं कर सकता अब उनका कोई बाल भी बांका ,
ये वे सोचते हैं,
और शहर-शहर ,गली-गली सीना ताने,
कॉलर ऊंचा कर घूमते हैं।
नहीं मध्यम वर्गीय और पिछड़ों का किसी को ध्यान,
सिर्फ निम्न और उच्च वर्ग की होती बात,
बीच में पिसते हम मध्यम वर्गीय और पिछड़े ,
हाथ पांव फेंकते चार,
फिर भी कछु हाथ नहीं आता,
क्यूंकि पिछड़े हैं कई फाड़,
इसका लाभ उठाते नेता,।
सत्ताधारी, विपक्ष और जनता करते,
समाज को सुधारवादी बनाने की सौ-सौ मील लंबी बातें पूरे पांच साल,
अंत में आकर अटकती सुई सब की जात पर,
नहीं हुआ जात का स्त्री और पुरुष में अब तक बटवारा,
अपने आप को क्या जनता और क्या सत्ता के चहेते सेक्युलर दिखलाते हैं,
चुनावी माहौल में ये सब अपनी- अपनी जाति में रंग जाते हैं,
जातिगत समीकरण ही,
इस चुनावी माहौल में कड़क रंग दिखलाते हैं,
मात्र यही मुद्दा बन जाते हैं,
होता परिणाम फिर वही पुराना सब अपनों को ही लाभ पहुंचाते हैं,
थोड़ा-थोड़ा कार्य हर क्षेत्र में कर वोटर को लुभाते हैं,
हाथों में अनाज का थैला पकड़ा कर,
युवा को आलसी और बेरोजगार बनाने के हथकंडे अपनाते हैं।
मुंह मियां मिट्ठू बन खूब वाह वाही कमाते हैं,
घूम फिर के यही चेहरे सत्ता पर काबिज हो जाते हैं,
नहीं आ पाते कभी सत्ता में ऐसे खूबसूरत मानसिकता के चेहरे जो राज्य,
राष्ट्र और समाज को इस कुपित मानसिकता से उबार,
सच में अपने को समाज समर्पित भाव से सेवा का अवसर चाहते हैं।
नहीं कोई जब हमारे पैमाने पर उतरता खरा,
हम सेक्युलर नोटा को अपनाने को मजबूर हो जाते हैं।
नहीं आता हाथ कछु ,
हाथ मलते रह जाते हैं।
फिर हुआ अंधियारा ५ साल के लिए,
यह सोच निराश मन से ,
जनता की इसी भीड़ में गुम हो जाते हैं।
चुनावी माहौल क्या-क्या रंग दिखलाते हैं।