आज की सच्चाई
आज की सच्चाई
बहुत कोशिश की है,
संभल कर चलने की।
बहुत कोशिश की है,
गिरकर उठने की।
रास्ते बोझ लगने लगे
मंजिल भी शिकायतें करने लगी।
अपने ही बाबुल की गलियां
मुझे पराई लगने लगी।
अपनापन दिखाई नहीं देता
छाया चारों तरफ सन्नाटा है।
कैसे कहूं क्या कहूं
समझ कुछ भी नहीं आता है।
अपने ही अपनों को डसने लगे हैं ।
सभी रिश्ते अब बोझिल लगने लगे हैं।
वह अपनापन नहीं रहा अब किसी में।
क्योंकि दिलों में दूरियां रखने लगे हैं।
दिखावटी जीवन अब जीने लगे
सुख-दुख भी अब पहेलियां बनने लगे।
बेगानापन सभी में झलकने लगा है।
सब कुछ अब बहुत दूर होने लगा है।
अपनों के बोल खंजर लगने लगे हैं,
घाव बहुत गहरे दिल में करने लगे हैं।
अपने ही अपनों से दूर होने लगे हैं,
मन को बहुत दुखाने लगे हैं।
कान भी अब तरसने लगे हैं।
दो मीठे बोल अब सपने हो गए हैं।
अपनी बातें मन की खुद को सुनाने लगे हैं।
अपने ही अपनों से दूर होने लगे हैं।