लहरों में खो जाना चाहती हूं।
लहरों में खो जाना चाहती हूं।
मैं वह गीत गुनगुनाना चाहती हूं,
विरह की वेदना को मैं भी,
हृदय यंगम करना चाहती हूं।
दिल की गहराइयों में उतर कर,
शब्दों का सिंधु बन जाना चाहती हूं।
तन्हाइयों में जो,
खुशी की लहर बन जाए।
मैं बनकर मुक्ता,
गले का हार होना चाहती हूं।
कुदरत के नजारों को छूकर,
गीत प्रेम के मैं भी,
गुनगुनाना चाहती हूं।
मन के मंथन से मैं नित्य,
करुणा के गीत गाना चाहती हूं।
बन तरु की सुरभित डाली,
मैं विचरण नित व्योम में करना चाहती हूं।
बनूँ मैं गीत की गुंजन ,
ओर सुर्ख कपोलों पर,
चुंबन प्रेम का लगाना चाहती हूं।
रूंधे गलों पर मैं भी,
सुर संगीत सजाना चाहती हूं।
सूखे हुए अधरों पर मैं नेह की,
बांसुरी बजाना चाहती हूं।
विरह की वेदना को मैं भी,
हृदय यंगम करना चाहती हूं।