कृष्ण न आए
कृष्ण न आए
दुराचारियों से धरा भी बोझ से तप्त है,
अबला का आँचल भी शोक संतप्त है।
वह आँखे स्वप्न विहिन सी देखती रही राहें,
चित्कार उठा कलेजा जब कृष्ण तुम न आए।
पुकार थी करुण क्रंदन था, आँचल भी लज्जित था,
कुकर्मियों के सामने काल क्यों किंकर्तव्यविमूढ़ था।
आतताइयों से बचने वह जंगल में दौड़ पड़ी,
मगर वृक्ष, लताओं में कृष्ण तुम नजर न आए।
हृदय विदीर्ण हो रहा था देश भी शर्मशार हो रहा था,
मगर हमारी मातृ को बचाने कृष्ण तुम न आएं।
चहुँ ओर घटाएं न थी घोर तिमिर भी न था,
तन मन में विष बिजली कौंध रही थी,
पर कृष्ण तुम न आए।
रूदन घना होता रहा, छटपटाती देह पुकारती रही,
बचाने लाज ममत्व की, कृष्ण तुम न आए।
वह बनकर दुःशाशन चीरहरण करने चले आए,
मगर प्रजा तो निहत्थी थी, फिर कृष्ण तुम क्यों न आए।
सुना था लाज बचाने को तुम सदा दौड़ कर आते,
पर कलयुग का पाप हरने को सुदर्शन लेकर कृष्ण न आएं।