देश की व्यथा
देश की व्यथा
देश ने अपने सही बेहद व्यथा
देश को देशज जनों ने ही ठगा
दासता बरसों रही है इसलिए
अनियंत्रित भीड़ है इस देश में
रीढ़ में हड्डी नहीं बाकी कोई
स्वयं को वश में नहीं करते कभी
नियम सरकारी नहीं जो मानते हैं
दोष वह सरकार पर ही डालते हैं
व्यक्ति को सत्ता स्वयं की है मिली
दूसरी सत्ता निजी परिवार की
स्वयं और परिवार को यदि ज्ञान देते
नाक-मुँह को मास्क से यदि ढांक लेते
वर्ष भर से स्वास्थ्य पर यदि ध्यान देते
श्वास का व्यायाम करते भाप लेते
भीड़ में घुसते नहीं, दूरी बनाते
लॉकडाउन के बिन
ा भी शांत रहते
फैलती ना छूत बस्ती, गाँव, घर में
सैकड़ों, लाखों नहीं बीमार होते
स्वास्थ्य कर्मी रात-दिन खटते नहीं
स्वास्थ्य के साधन यूँ ही घटते नहीं
मृत्यु हर घर में नहीं यूँ नृत्य करती
कोख माँओं की नहीं यूँ ही उजड़ती
जल रहे ख़ुद की लगाई आग में जो
दे रहे हैं गालियाँ सरकार को वो
'जीवधारी देश', ख़ुद को मानते हैं
राज, सत्ता सब बदलना चाहते हैं
काश वो ख़ुद को बदल लेते ज़रा
दोष ख़ुद में ढूँढ लेते स्वल्प सा
देश क्या ब्रह्माण्ड भी जाता बदल
यदि 'बुद्धिजीवी' देश का जाता सुधर।