वृक्ष की पुकार
वृक्ष की पुकार
वृक्ष माँग रहा ऋण वापस
जो उसने हमें दिया था
निरंतर कर्त्तव्य पथ पर चलकर
वह हमारे लिये ही तो जिया था ।
वृक्ष अटल निरंतर देता रहता
शुद्ध हवा के झोंके,
जी ले जीवन तू मानव
मेरे दिए इस ऋण से
वक़्त आयेगा तब माँगूँगा
अपना उधार मैं तुझसे ।
आज दे रहा अपना सब कुछ
इसी उम्मीद में तुम को
कल गर मैं मुश्किल में आ जाऊँ
तुम संभालोगे क्या मुझ को ।
गुज़र गए अब वो ज़माने
जब मैं निडर खड़ा रहता था
डर लगता है मुझ को
अब कोई पास मेरे गर आ जाए
मार कुल्हाड़ी मेरे तन को
मृत्यु लोक ना पहुँचाए ।
हे मानव, माँग रहा उधार मैं अपना
वापस मुझे लौटा दो
करके कोई जतन हमें
इन खूनियों से बचा लो ।
कट रहे निरंतर घोंसले
कम हो गई पंछियों की आबादी
डर लगता है उनको
जिस डाल पर बैठे,
कहीं हो ना जाए उसकी बर्बादी ।
चुकाना पड़ेगा ऋण वापस उनका
आ गई है अब वह बारी
वृक्ष लगाओ हर गली मोहल्ले
आया समय है भारी
ऋण वापस करने की
कर लो अब तैयारी ।
वृक्षों का लहराना,
पंछियों का चहकना
फिर हो जाएगा जारी
दम घुटते मानव को
मिलेगी पुनः शुद्ध हवा में
जीने की खुशहाली ।