दर्द लिख ना सका
दर्द लिख ना सका
मैं दर्द लिखने बैठा, मगर उसे लिख ना सका
मेरे दिल का घाव किसी को कभी दिख ना सका
मैंने मां का दर्द देखा है, वह चुप चुप रोती है
अपने आंसुओ से अपना ही दामन भिगोती है
खुद गमों में डूबके भी हम सबको खुशी देती है
मां के दर्द को लिखने की हिम्मत कर ना सका
मैं दर्द लिखने बैठा, मगर उसे लिख ना सका।।
मैंने फुटपाथ पर एक गरीब परिवार देखा है
फटेहाल कपड़ों में भी उसे खुशहाल देखा है
दिन रात मेहनत के बाद भी तंगहाल देखा है
उस गरीब की किस्मत को मैं बदल ना सका
मैं दर्द लिखने बैठा, मगर उसे लिख ना सका।।
मैंने काश्मीरी पंडितों को एक नजर देखा है
उनकी आंखों में वो खौफनाक मंजर देखा है
सीने में धंसे हुए विश्वासघात का खंजर देखा है
मैं रिसते घावों पर कोई मल्हम लगा ना सका
मैं दर्द लिखने बैठा, मगर उसे लिख ना सका।।
मैंने दुष्कर्म पीड़िता को दर्द से कराहते देखा है
अपनों के तानों से तिल तिल मरते हुए देखा है
थानों, न्यायालयों में चक्कर लगाते हुए देखा है
उसके सूखे होंठों को कोई मुस्कान दे ना सका
मैं दर्द लिखने बैठा, मगर उसे लिख ना सका।।
दर्द मुफ्त मिलता है, इसको हर कोई दे जाता है
कोई बल, कोई छल, कोई चुपके से रख जाता है
जब हद से बढ़ जाए तो आंखों से छलक जाता है
दर्द देने वालों को मैं कभी मना कर ना सका
मैं दर्द लिखने बैठा, मगर उसे लिख ना सका।