एक अनसुलझा रहस्य
एक अनसुलझा रहस्य
प्यास से बेहाल होकर मैं जा रहा था पनघट पर,
चलते हुए जाने कैसे मैं पहुँच गया था मरघट पर,
पथ अनजाना था पर वे राही सभी जान पड़ते थे,
तभी कुछ खड़े दिखे लोग , अपनी ही चौखट पर,
कोमल किसलय पातों की डालियाँ झूल रही थी,
हर-क्षण डर से घबराकर मेरी सांसे फूल रही थी,
न जानता क्या वो रहस्य छिपा था इस मरघट में,
सांय-सांय चलती हवाएँ, जैसे कुछ बोल रही थी,
हर तरफ अपने हाथों को बांधे,सभी मौन खड़े थे,
मन में अपने धधकती अंगार हृदय में लिए बैठे थे,
जिधर देखा, उधर एक नया रहस्य छिपा बैठा था,
जानना चाह रहस्य पर लोग वहाँ कुछ ना कहते थे,
तभी अचानक एक तरफ कोई डोली सजी हुई थी,
नैन झुकाए वरमाला लिए एक दुल्हन वहाँ खड़ी थी,
जैसे लगा जिंदगी ठहर गई , रहस्य समझ न पाया,
सुहाग पर मौत की कुछ दूर पर एक अर्थी पड़ी थी,
पनघट पर जाते-जाते जो मरघट पर आ पहुंचा हो,
मेरी व्यथा वही जाने जो पनघट से प्यासा लौटा हो,
हर रहस्य के साथ पंथ था अजान दूर मेरा शहर था,
मेरी घबराहट वही जाने जिस पर यह सब बीता हो,
जाने क्या अपराध हुआ था भूल भला कौन सी हुई,
कौन है मृत्यु शैया पर किसकी देह यहाँ से विदा हुई,
क्या रहस्य छिपा है इस मरघट में कौन यहाँ बतलाए?
गहन अंधकार फैल गया , रोशनी आखिर कहाँ गई?
आ गई विदा की घड़ी देह अग्नि में हो गई समाहित,
धुआँ- धुआँ हो गया चारों ओर, मन हो रहा किंचित,
रहस्य यही आखिर पनघट पर मरघट कहाँ से आया,
नहीं समझ पा रहा था वहाँ हो रहा था सब विपरीत,
सांसो का बोझ लिए मैं वहाँ से आगे निकलने लगा,
तभी ढोल- नगाड़े बज उठे, मन बहुत घबराने लगा,
अनसुलझे रहस्य पर कदम मेरे, भारी होते चले गए,
जाने क्यों वो अनसुलझा-सा रहस्य मुझे डराने लगा I