दोस्त, अब तेरा ठिकाना कहाँ ?
दोस्त, अब तेरा ठिकाना कहाँ ?
अब तेरा ठिकाना कहाँ है ?
नुक्कड कि चाय कि दुकान तो
बंद हो गयी है !
ढेर सारी बातें होती थी
कुछ छिछोरापन
कुछ छेड़खानी होती थी।
कुछ पर्सनल
कुछ सोशियल भी होता था
चाय के साथ यादें ताजा होती थी।
अब तेरा ठिकाना कहाँ है ?
वो शाम आज भी याद आती है
पैर फैलाकर बैठे थे...
एक हाथ में सिगरेट
एक कंधे पर रखा था।
तब धुएँ के साथ
दिल टूटने की बातें..
उम्दा खयाल..
नजरों का कमाल।
वादों के सिलसिले
इरादों की नेकियत...
सब कुछ याद आया।
फिर भी ...बता
अब तेरा बसेरा कहाँ है ?
कल डायरी में रखी
सुखी पंखुड़ी मिली
याद फिर दस्तक देने लगी..
उसकी याद फिर सताने लगी।
कपड़ों पर गिरी चाय
गुस्से में नाराजगी
दिल लुभाने लगी।
झूठी शिकायत
नेक शख्सियत
जाने कहाँ गुम हो गयी।
अब तो बता ये जालिम...
तेरी खुली किताब कहाँ है ?
मिलो तो कभी..
चार बातें बता दूँ
दिल को अपने
सुकून दिला दूँ।।