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Shakuntla Agarwal

Tragedy

5.0  

Shakuntla Agarwal

Tragedy

||"कुण्ठा"||

||"कुण्ठा"||

1 min
600


कुछ कहूं तो दिक्क़त ,

ना कहूं तो दिक्क़त !

समझ नहीं आता कुछ कहूं ,

या ख़ामोश रहूं मैं !


वंश चलाने की चाह में ,

मुझे इस कग़ार पर ला खड़ा कर दिया !

बेटी जनू तो मनहूस कहलाऊँ ,

बच्चें ना जनू तो बाँझ !


समझ नहीं आता बच्चें जनू ,

या बाँझ रहूं मैं !


हनन होता है मेरे अधिकारों का जब ,

टीस अथाह उठती है मेरे मन में !

अधिकारों के लिए लड़ू तो चालाक ,

ना लड़ू तो बुद्धू !


समझ नहीं आता अधिकारों के लिए लड़ू ,

या शांत रहूं मैं !


अथाह बेड़ियाँ डाली हैं ,

समाज़ ने मेरे पैरों में !

बोझ तलें दबी चली जा रहीं ,

बेड़ियाँ तोड़ू तो शांति ,

ना तोड़ू तो कुण्ठा !


समझ नहीं आता बेड़ियाँ पहनूं ,

या आज़ाद रहूं मैं !


मकड़ी के जाले की तरह ,

उलझी हूँ रिश्तें - नातों में !

मकड़ जाल में मैं ,

साँस नहीं ले पा रहीं !

रिश्तें तोड़ दूँ तो बदनामी ,

ना तोड़ू तो घुटन !


समझ नहीं आता घुटूँ ,

या बदनामी सहूँ मैं !


उड़ना चाहती हूँ ,

स्वतंत्र भयमुक्त आकाश में !

आज़ाद परिंदे की तरहा ,

पिंजरे की क़ैद में ,

दम मेरा निकल रहा !

पिंजरे में रहूं तो बेचैनी ,

ना रहूं तो परवाज़ !


"शकुन" समझ नहीं आता उडूं ,

या पिंजरे में क़ैद रहूं मैं !




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