दरख़्त
दरख़्त
मन कितना
उलझा हुआ रहता है न
इन दरख़्तों की तरह,
भीड़ में होकर भी हम
जाने क्यों तन्हा रहते हैं
कुछ ऊँचाई को पा
मगरूर खड़े रहते हैं,
दिल तो कोमल
हरा भरा है
प्रेम से भरा हुआ
महसूस भी कर सकते हैं,
किसी की आँखों में झांक
उसके दर्द को
फिर भी...
अपनों के बीच रहकर भी
एकाकीपन क्यों भाता है
क्यों किसी से कहते नहीं
किसी का सुनते नहीं,
और ढह जाती है एक दिन
ये जिस्म की चमचमाती इमारत
इन दरख्तों की तरह।