कैसे जलाऊँ मै दीपक..!
कैसे जलाऊँ मै दीपक..!
कैसे जलाऊँ मैं
प्रेम के दीपक को
मेरा दीया तो मुझसे दूर है...!
कैसे करूँ मैं
नेह की बाती को पूरित
और कहाँ से लाऊँ ज्योति
मेरे दोनों कर मजबूर है
द्वंध जारी है
मन और मस्तिष्क के बीच
एक कहता है
तुम्हें बिसरा दूँ
दूसरा विरोध करता है
तुम्हारे यादों की पूँजी को
संभालने को कहता है
एक उसे विसर्जित करने की
सलाह देता है
दूसरा कहता है
कैसे विस्मृत कर दूँ
तुम्हारे यादों को...?
तुम्हारे साथ बिताये उन
सुनहरे पलों को
यही यादें
मेरे लिए प्राणदायिनी हैं..!
तुम्हारे यादों का स्पर्श
पुलकित करता है मुझे
मेरे एकांत का
साथी भी है सारथी भी....!