तुम्हें रुलाया
तुम्हें रुलाया
सोचती हूँ क्या माँगा था तुमने !
पर वो भी मेरा मन दे ना पाया
अंतर्मन की कैसी गरीबी हाय !
सोचा, पर मन समझ ना पाया
एक बूंद की प्यास थी वो
उस बूंद में सागर समाया
तुम तट पर बैठे अकेले
और मेरा ह्रदय लौट ना पाया
अपनी गुमनाम चुप्पी में
कहीं कोमल सत्य ना दिखाया
ज़माने के ठहाकों की खातिर
मैंने तुम्हें बहुत रुलाया
हाँ, गुनहगार ही तो हूँ मैं
जो तुम्हें इतना तड़पाया।