Harish Sharma

Abstract Drama

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Harish Sharma

Abstract Drama

स्वंयम्भू

स्वंयम्भू

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"ये क्या अजीब मौसम बनाया है कुदरत में,न दिन में चैन,न रात को। शुकर है ए सी है,वातानुकूलित यात्राएं हैं और गाड़ियां,न जाने सुविधा से रहित लोग कैसे जीते होंगे?" युवा लड़के ने बाहर की उमस में खीझते हुए आकर आपने पिता को कहा।

"बेटा, दुबई गए थे तुम जब नौकरी करने तो कहा करते थे कि पचास डिग्री तामपान रहता है। पांच साल नौकरी कर आये,और सब झेल लिया। ये तो चालीस,बयालीस डिग्री का खेल है,थोड़ा मजबूत बनो। " पिता जी ने मुस्कुराते हुए कहा। 

"अरे डैड वक्त वक्त की बात है,आज सोचता हूँ बचपन मे मई जून में भी दोपहर दो बजे क्रिकेट का मैच लगा लेते थे। झूठ बोलकर घर में स्कूल का बैग रख मैदान में भाग जाते। तब खेलने का जनून गर्मी महसूस नही होने देता था और दुबई में पैसे का जुनून पचास डिग्री पर काम करवा देता। पसीना एड़ियों से चूता पर जब तनख्वाह मिलती तो सब भूल जाते।"

"हाँ, यही बात है ,जुनून। जुनून हो या मजबूरी ,यही आपकी सहन शीलता को बढ़ाती है। और ये जो तुम कह रहे हो सुविधा रहित लोग,इन्हें भी इनकी मजबूरी और गरीबी मजबूत बना देती है। अब कोई क्या करें?अगर जेब मे पैसा न हो। रेलगाड़ियों के जर्नल डिब्बो जैसी जिंदगी,जिनमें गर्मी हो या सर्दी,जगह हो न हो,पर ये लोग जो हमारे खेत,घर,शहर को दिहाड़ी,मजदूरी,नौकरी से चलने लायक बनाते हैं,सिर्फ एक उम्मीद से सब झेल जाते हैं। वो उम्मीद है,घर वापिस पहुंचने की,घर की दाल रोटी चलते रहने की ,और रोजगार में बने रहने की। इन्हें चुनने की सुविधा नही होती तो ये सिर्फ जिन्दगी के टुकड़े बीन लेते हैं।"

पिता जी ने जैसे काव्यात्मक भावना से बेटे को अहसास करवाया था।

"तो सरकार की जिम्मेदारी क्या है? क्या इन्हें सुविधाएं नही देनी चाहिए।"

"बेटा, अगर कोई पानी पर जिंदा रह सके तो उसे कोई शर्बत क्यों दे? केवल दो टाइम के भोजन पर जिंदा रह सके तो तीन टाइम की कमाई क्यो दें। हम सब केवल सरकार पर ही निर्भर नहीं हैं,हमारी अपनी सीमाएं हमे व्यवस्थित करती हैं। क्या तुम्हें ए सी या बड़ा घर सरकार ने दिया है,तुम में योग्यता है तो तुम अर्जित कर पाए। कितने अफसर,इंजीनियर और बड़े बाबू ऐसे हैं जो अमीर घरानों में पैदा हुए। हर कोई चांदी का चम्मच मुंह मे लेकर पैदा नही हुआ,बहुत लोग बेचैनी लेकर पैदा होते है जो शायद उनके मेहनती और गरीब मां बाप के जीन्स में मिलकर उन्हें ये देती है। "

पिता जी ने जैसे एक कड़वा सच बेटे को बताया हो। बेटा अब ए सी की ठंडी हवा में थोड़ा रिलेक्स हो गया था। 

"खैर,मोरल ऑफ द स्टोरी तो डार्विन वाली ही हुई कि सर्वाइवल इस द फिटस्ट। झेलने और झेलकर अड़े रहने वाला ही फिट होता है।"

बेटे ने एक गहरी सांस छोड़ी और कांच की खिड़की से बाहर की धूप को देखते हुए विचारमग्न हो गया।

पूरा एक महीना हो गया था। बारिश का कोई अता पता नही था। गर्मी और उमस से जैसी धरती गैस चैंबर बनी हुई थी। धान के खेतों में खड़ा पानी उमस की चिपचिपाहट बढ़ा रहा था। बस्ती और झुग्गी में रहने वाले लोग,खेत मजदूर और गरीब इस मौसम में भी लगभग वैसे ही थे जैसे इस मौसम से पहले। उनके बच्चे बिना कूलर,ए सी और पंखे के ही सो जाते। जैसे प्रकृति के साथ आत्मसात हो गए हो। कोविड काल के दौरान भी वे लगभग बिना किसी इंफेक्शन के स्वस्थ रहे। कुपोषण और सूखा रोग तो अमीरों में भी था। सरकारी हस्पताल के टीकाकरण वाले कार्ड पर पले बढ़े बच्चे और प्राइवेट हस्पताल में जन्मे ,उनके द्वारा महंगे टीकाकरण चार्ट को फॉलो कर पले बढ़े बेबी ज्यादा बीमार हो रहे थे। एक अजीब सी ठगी का दुष्चक्र था। पुराने पछता रहे थे और नए असमंजस में फस रहे थे।

"तो क्या जिंदगी में ये जो असमानताएं हैं,वे बनी रहेगीं।"

बेटे ने फिर सवाल उठाया। 

"असमानता का मतलब क्या है तुम्हारे लिए,अगर तुम केवल सुविधाओं के बारे में बात कर रहे हो तो तुम्हे इस बात को भी समझना होगा कि मूलभूत सुविधाएं क्या है,लग्जरी को तुम इसमें शामिल तो नही कर रहे? क्योकि मूल भूत सुविधाएं आज भी रोटी कपड़ा,मकान हैं,पर उनके कोई पैरामीटर तय नही हैं। रोटी है तो क्या उसमें छत्तीस पकवान होने चाहिए,कपड़ा है तो क्या उसमें ब्रांड होने चाहिए,मकान है तो क्या उसमें बंगला कोठी की भव्यता होनी चाहिए। ईश्वर भी हमे शरीर देता है,पर उसे सदृढ़,सुंदर और कर्मशील बनाने के लिए व्यक्ति को ही प्रयत्न करना पड़ता है। और फिर संसार मे तो वर्चस्व उसी का रहेगा जो नियंत्रण करना जानता है,बाकी उस नियंत्रण की व्यवस्था में जीने का अभ्यास करते हैं।"

"तो क्या कोई विरोध और छटपटाहट का कोई औचित्य नहीं पिताजी??"

"है बिल्कुल है जब ये तुम्हारे खुद को बदलने की दिशा में सबसे पहले हो। व्यक्ति जब खुद की स्थिति को बदलने का प्रयास करता है,संघर्ष करता है तो ही विकास कर पाता है। और जब ये छटपटाहट सामूहिक हो तो बड़े परिवर्तन होते हैं। कोई भी सवाल जब मन मे पैदा हो तो पहले खुद उसके उत्तर सोचना। जब हम केवल प्रश्न उठाते हैं पर खुद उनके उत्तर के लिए कोई मंथन नही करते तो ऐसे प्रश्न केवल प्रश्न बने रहते हैं,अराजकता पैदा करते है।"

पिता की बात सुनकर बेटा अब पूरी तरह संतुष्ट था।


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