जगह की तलाश में
जगह की तलाश में
आखिर मैंने हार मान ली और न जाने क्यों मैं उनके प्रति दया से भर गया । ये जाए भी तो कहा जाय । जहां जाते हैं,वही से भगा दिए जाते हैं । उधर के मुहल्ले वाले इधर,इधर वाले कही आगे । आखिर सम्भाले कौन? ये जिम्मेदारी है किसकी? कौन किसकी जगह घेर रहा है??मुझे लगा कि मैं कोई पाप कर रहा हूँ,ये चेतना कहाँ से आ रही थी? पापबोध कब होता है?मैं जैसे अपने ही सवालों के प्रत्युत्तर में बहुत से प्रश्न सुन पा रहा था ।
और मैने भी महाभारतबक युद्ध शुरू होने से पहले अर्जुन की तरह अपने हाथ मे ली लाठी वापस घर की एक दीवार के साथ रख दी । पशु जैसे अपने आने जाने के लिए प्रतिबद्ध थे । वे हड़काने पर थोड़ी दूर भागते और फिर वापिस वही आ जाते । शायद वे कही जाने की जगह खो चुके थे । बस गोल गोल घूमा करते थे । जाते भी तो कहा जाते?इस कंक्रीट के जंगल मे उनकी अपनी जगह खो गई थी ।
कहते है जब भीषण प्रलय के बाद धरती बनी तो सब कुछ बैलेंस था । मतलब रहने,खाने पीने और जीने का अनुपात । पर जैसे जैसे हम तथाकथित सभ्यता के रथ पर सवार हो अपनी पीठ ठोकते रहे और कितना विस्तृत इतिहास लिए उजड़ने बसने के तथ्य जुटाते रहे,उतना ही जीवन और रहने ,खाने की स्वतंत्रता का दायरा घटता गया । हमारे गली मोहल्लों में,शहर में ,देश मे ये संतुलन या बैलेंसिंग का जो दायरा था ,सभी जीवों का ये लगातार सिकुड़ रहा था,और सभी धकमपेल में जुटे लग रहे थे । आई चलते हैं अब इसकी कहानी पर ।
ये रोज की मुसीबत हो गई थी । सुबह उठते ही घर का मुख्य द्वार खोलो तो आवारा पशु और कुत्ते । उनका इधर उधर फैला गोबर तथा गन्दगी । वो रोजाना जाने कहां से झुंड बना कर आते और जहां खाली प्लाट तथा छाया दिखती बैठ जाते । बाजार जाओ तो ,सड़क पर निकलो तो,ये सब जगह फैले थे । गाड़ियों से टकराते,लोगो से टकराते,आपस मे भिड़ते ये शहर की प्रमुख समस्या थे ।
"मैं क्या करूँ,बाबूजी । ये तो हर गली मोहल्ले में फैले । ठेकरदार मुझसे कहा रहा कि सफाई नही करती । अब गाड़ी में लोगो के घर का कूड़ा इक्कठा करूँ या इनका फैला गोबर भरूँ । ये तो खत्म ही नही होता । हमारी ड्यूटी गोबर उठाने की थोड़े । कमेटी वाले सम्भाले इनको या गोशाला वाले । बताइए हम गरीबों पर भड़कने का क्या फायदा । " हमारी गली की सफाई सेविका रामप्यारी कूड़ा गाड़ी खींचते हुए रुक गई और गली में घूमते आवारा पशुओं को देखकर अपने माथे से पसीना पोछते बोली ।
वो रोज आया करती और कभी कभार किसी घर की देहली पर बैठ कर सुस्ता लेती । किसी से चाय मांग लेती या प्लास्टिक कचरा किसी खाली जगह इक्कट्ठा करके जलाने के लिए माचिस मांग लेती । उसकी कचरा गाड़ी में एक लंबे डंडे वाला झाड़ू रखा होता । सुबह सवेरे घर घर से कचरा पेटी में डस्टबिन खाली करवाती । दोपहर या शाम को मनमर्जी मुताबिक झाड़ू लगाती । लेकिन अब इन आवारा पशुओं ने जगह जगह गोबर करके उसके लिए मुसीबत खड़ी कर दी थी । मुहल्ले ,कालोनी वालो की गाड़ियां आते जाते इस गोबर से खराब होती और उनके पहियों के साथ यही गोबर घरों में प्रवेश कर जाता । चारे की कमी के कारण गला सड़ा कूड़ा ,लिफाफे खा लेने वाले ये बेचारे पशु बहुत ही दुर्गंध भरा पतला गोबर करते,जैसे उन्हें दस्त लगे हों । बड़ा विकृत माहौल इस गोबर से पैदा हो जाता ।
शहर जो लगातार फैल रहा था,खाली धरती को लीलते हुए जैसे कोई अजगर अपने शिकार को समूचा निगल रहा हो । खेती की जमीन, बंजर जमीन,चारागाह, खुले पड़े मैदान कालोनी, प्लाट, भव्य बिल्डिंगों,आवासों,बड़े शोरूमों में बदल रहे थे । नई सड़के, पार्क और बाजार साथ साथ बढ़ते । पर जिन जगहों को वो कंक्रीट,मनुष्य और ईंट पत्थर से भर रहे थे,उन जगहों पर रहने वाले,पलने वाले पशु पक्षियों,पेड़ो,चारागाहों को कहाँ भेजा जाएगा,इसके बारे में कोई योजना शायद नही थी ।वे बस भटकने या बूचड़खानों में उनकी व्यापारिक उपयोगिता के लिए शापित थे । उपयोगी होते तो गांव के घरों में या शहरों की गोशालाओं में काम आते । अनुपयोगी हो जाते तो उन्हें दोनों जगहों से निष्काषित कर दिया जाता ।
बूचड़खानों ने रात बिरात कुछ को संभालने की व्यापारिक व्यवस्था कर ली । इस हिंसा के खिलाफ गो सेवक गो वंश को बचाने का अभियान चलाने लगे । उन्होंने गोशालाओं की मांग की । सरकार ने गो कर लगाकर पैसा इकट्ठा किया और हर क्षेत्र में गो शालाएं खोली गई ।
पर कहते है कि कर का पैसा कहीं नही पहुंचा, पहुंचा तो किस पर खर्च हो गया ,उस ओर विरोधी और सत्तारूढ़ बहस करते । अखबार की खबरे रंगी जाती ।
"पर निकला क्या???निल बटे सन्नाटा ।" रंजन भाई ने एक तरफ थूक कर कहा ।
"कुछ शहर का ही हिस्सा हो गए जो मनुष्यों का फेंका कूड़ा सूंघते ,सब्जी मंडियों की छोड़ दी गई बची खुची खाते उसी पर आश्रित हो गए । ये एक बड़ी भीड़ थी जो मनुष्यों की भीड़ में ऐसे मिल गई जैसे यमुना में कीचड़ ।"जयपाल ने प्रोफेसरी अंदाज में अपनी भड़ास निकाल ली।
अंततः.... कल मैंने तथा पड़ोसी रंजन ,जयपाल और महेश ने फैंसला किया कि सुबह जल्दी उठकर देखा जाय कि मुहल्ले में घुस कहा से रहे,और वही से दौड़ा दिया जाए । मुहल्ला दो गुजरती सड़को के मध्य में फैला था । एक तरफ मुख्य सड़क से कटता हुआ रोड शहर के भीतर आ रहा था तो दूसरी ओर शहर का ही रोड अलग अलग गलियों के मुहाने से गुजर रहा था ।
रंजन भाई सुबह साढ़े पांच बजे के दिये टाइम के मुताबिक
अपने गेट के बाहर खड़े थे । महेश और जयपाल भी । मैं भी उनके साथ हो लिया । सोचा कि गली के दोनों मुहानों पर नजर रखी जाये ।
महेश बोला-देखो जयपाल और रंजन! तुम हो भाई ज़वान जहान आदमी तुम दोनों में से एक एक जन हमारे साथ हो लो । और कही एकाध सांड़ ने दौड़ा लिया तो कम से कम कोई अद्धा, लाठी तो मार लोगे ।"
"हां हम तो दारा सिंह अखाड़े में पले बढ़े हैं न,जो लाठी चला लेगें ।" जयपाल ने चुटकी ली ।
उधर रामप्यारी भी कचरा गाड़ी लिए आने ही वाली थी । सुबह छह बजे तक आ ही जाती है। पर उससे पहले पशु झुंड पहुंच जाता है । हुआ भी वही,गली के एक मुहाने से दस ग्यारह पशुओं का झुंड चला आ रहा था । आज उनमे कुछ नए भी लग रहे थे । शहर के आस पास फैले गांव वालों ने अपनी फसलों को बचाने के लिए सब अनुपयोगी पशुओं को घरों से दौड़ा दिया था और एक ऐसी गाड़ी में भरवाकर शहर के मुहाने,सड़कों और मंडियों के बाहर मुंह अंधेरे उतरवा दिया जो ऐसे ही कामों का ठेका गांव वालों से करने लगी थी ।
सुबह होते ही सड़कों पर गली,मुहल्लों में नए पशु इधर उधर बैठे, चलते राहगीरों को दिखते । ये अलग अलग दिशाओं में फैल जाते । जो गो शालाओं के बाहर छोड़े जाते अपनी उपयोगिता या वहां उपलब्ध जगह के आधार पर ले लिए जाते,बाकी सब शहर में विचरण करते ।
हम उन्हें लगातार हड़का रहे थे । वे थोड़ा दूर जाकर रुक जाते । फिर पीछे मुड़ हमारी तरफ देखते । गली के एक मकान के चौबारे पर एक महाजन सुबह सुबह अपनी घरवाली के साथ कपड़े धुलवा रहा था । उसने मुस्कुरा कर हमारी तरफ देखा । हम सब हाथ मे प्लास्टिक,लकड़ी के पाइप और डंडे पकड़े चरवाहे लग रहे थे ।
महाजन कुछ बोला नही,सोचा होगा कि कुछ कहेगा तो कही कपड़े छोड़ उसे भी इस पशु भगाओ अभियान में शामिल न होना पड़े ।
"यार,तीन प्रतिशत काऊ सेस हम बिजली के बिल में देते हैं, आखिर किस बात का? क्या सुविधा है । हमारे जूते हमारे सिर । काऊ सेस भी दो और उन्हें गली, मुहल्ले और सड़क पर झेलो भी । सब साले लूटने में लगे हैं ।" रंजन बोला तो मैं महाजन की मुस्कुराहट और उसकी इस पूरे माहौल से अनभिज्ञता जाहिर करने की चालाकी समझने के व्यूह से जैसे निकल आया ।
रंजन और जयपाल एक घर की दहलीज पर जैसे तक हारकर बैठे हों ।
पूरा मुहल्ला दो गलियों में बटा हुआ था । दोनों भागो में प्रवेश करने के लिए एक ही मार्ग दोनों तरफ से आता था । आवारा पशुओं को भगाते तो वो भी एक गली से दूसरी गली में निकल जाते और फिर आगे जाकर रुक जाते । चूहा बिल्ली की दौड़ सी थी,पर कौन क्या था ये तय कर पाना मुश्किल था । इस मुहल्ले की दोनों गलियों में एक वर्गीयता थी । एक तरफ व्यापारियों के घर तो दूसरी तरफ सरकारी और प्राइवेट कर्मचारी । इसलिए दोनों वर्गों के एक अजीब सी स्तरीयता थी,वे ज्यादतर असहयोगी थे एक दूसरे के । पशुओं के मामले में या गली की सफाई के मामले में भी जाने कैसे एक तरफ बहुत सफाई रहती थी । कभी गोबर बिखरा नहीं दिखता था । पर इस तरफ मतलब हम सभी पशु भगाओ अभियान में जुट चुके मित्रों की गली में ये स्वच्छता नादारद थी ।
बकौल रामप्यारी-वो लोग तो मुझे हर महीने अलग से पचास रुपिया देते है बाबू जी । आप लोग भी दे दिया करो,मैं अलग से एक आदमी लगवा के सफाई करवा दिया करुँगी । अब एक जन के बस का थोड़े है,समझो ।
रामप्यारी बीड़ी फूंकते जमीन पर उकड़ू बैठी थी ।
अब तो ये सब सफाई कर्मी नगर कमेटी से वेतन पाते थे । कोई त्योहार हो,मौका हो,पैसे लेती,खाना मिठाई लेती ।लेकिन इसका पेट न भरता । अब जिस काम के लिए सरकार वेतन दे रही,उसके लिए हमसे अलग पैसे ।
यही तो हो रहा,दफ्तरों में इसे रिश्वत कह देते हैं और बिना दफ्तर वालो के लिए ये सहयोग राशि । एक बार इसी पर नगर परिषद में शिकायत करने गए तो वहां बाबू भी यही बोला-अजी कहा इन के साथ बहस में पड़ रहे हैं । यही सोच लिया करें कि हर महीने पचास सौ रुपया स्वच्छता अभियान और गली मोहल्ले की सुंदरता के लिए दे दिया । अभी फलां मुहल्ले में कितना बवाल हुआ ,बड़े अफसर बन रहे थे साहब । कचरा सफाई कर्मचारी से थोड़ा सफाई पर झगड़ा कर बैठा । आधे घण्टे में पूरे शहर के सफाई कर्मी इकट्ठा हो गए । नारेबाजी तो की ही ,अफसर के दरवाजे पर कचरे का ढेर लगाकर धरना देकर बैठ गए । कहने लगे जब तक माफी नही मांगोगे,घर से निकलने नही देंगे । ...बताइए ये तो हाल है...और आखिर में हुआ क्या । पुलिस आई ,लोकल एम सी आया तो अफसर को माफी मांगकर पीछा छुड़वाना पड़ा । न मांगता तो क्या पता कौन से एक्ट में उसी पर मुकदमा हो जाता ।
दफ्तरी बाबू ने घुमा फिराकर हमे ही समझा दिया कि ले दे के ही निपटा देना चाहिए मामला ।
"चलो यार अब कब तक इनसे माथा फोड़े । टाइम भी हो रहा है,दो तीन दिन यही सब करना होगा तो ये पशु भी समझेंगे कि हम विरोध कर रहे है,इसलिए कोई और गली मोहल्ला पकड़ लो । चलो अब ,ड्यूटी पर भी जाना है ।"
तो हम सब लौट पड़े । नहा धोकर ,तैयार होकर अपने आपने काम पर जाने के लिए ।
घण्टे भर बाद जब आफिस जाने के लिए घर से बाहर निकला तो सब पशु परमहंसों की तरह खाली प्लाट में बैठे जुगाली करते नजर आए । उन्होंने बड़े दैन्य भाव से मेरी ओर देखा । मेरा मन भी खीझ की जगह एक तरस भरी वेदना से भर गया ।
हम सब बिना कोई प्रतिक्रिया दिए अपनी रोजाना की जिंदगी में शामिल हो गए ।