अग्निपथ
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पांच सात साल से परीक्षाएं ही तो दे रहा है । आज फिर घर से सौ किलोमीटर दूर इस भव्य शहर में परीक्षा केंद्र होने के कारण पेपर देने आया है ।
कितनी भव्य इमारते, कितने सुंदर घर, कोठियां । स्टाइलिश लोग, स्टाइलिश रहन सहन । सुंदर सड़के, पार्क, बाजार, सब वस्तुओं की उपलब्धता । गाँव से शहर आने का सपना उसे कालेज के दिनों से लग गया था । गांव के घर मे उसने मां को बचपन से चूल्हा चौका लीपते देखा । पिता को मूलभूत जरूरतों में पिसता देखा । आधे रेट पर पुरानी किताबें खरीद अपनी पढ़ाई पूरी करते वो देखता कि गाँव के दो चार नहाए धोये बच्चे, अच्छी यूनिफार्म पहने एक सुंदर सी बस में पढ़ने जाते । अंग्रेजी मीडियम वाली शिक्षा लेने ।
खैर बी ए की पढ़ाई पूरी हुई तो नौकरी के सपने घर मे पलने लगे । वो सोचता कि कब उसे कोई नौकरी मिले और वो इस विपन्नता से निकलकर परिवार के साथ उप्लब्धताओं के शहर में जा बसे । आगे की पढ़ाई भी आवश्यक थी । बी ए को कौन पूछता है । कुछ ट्यूशन वर्क एक लोकल ट्यूशन सेंटर में मिल गया, फिर पिता के साथ आटे की चक्की पर भी हाथ बटाया और विभिन्न विभागों की परीक्षा देते वह पोस्ट ग्रेजुएशन भी कर गया । परीक्षाओं को देते समय पता चला कि बेस कितना जरूरी होता है, और फिर एकाग्रता । पर घर के कामों और विपन्नता में पलते बढ़ते जीवन मे ये दोनों चीजे कोई विरला ही साध पाता है । वो हैरान होता जब अखबारों में किसी अति गरीब, मजदूर, या ग्रामीण क्षेत्र के बच्चे द्वारा कोई कम्पीटिशन क्लियर करने की खबर पढ़ता । पर वो कितने होते, लाखों की संख्या में है ऐसे लोग जो मेहनत करते है, जूझते है, पर एक प्रतिशत से भी कम सफल होते है । हां प्रेरणा बन जाते है या मरीचिका, ये बहुत व्यक्तिगत राय है ।
तदर्थ आधार पर एक इंटर कालेज में पढ़ाने की नौकरी मिली । वेतन इतना कि वो बस ये कहने लायक था कि नौकरी तो है, गुजारा नहीं है । बेरोजगारों की लंबी लाइन में जब इंटरव्यू होते है तो योग्यता के साथ एक और प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण होता है जब इंटरव्यू लेने वाला बाहुबली ये पूछता है, "कितना लोगे?/कितना वेतन की उम्मीद करते हैं ?"
और फिर इस तदर्थ नौकरी कर विज्ञापन में दिए गए स्मार्ट सैलेरी का अर्थ और भी गहराई से समझ आता है । इस तरह की नौकरी के लिए भी बहुत सिफारिशें, जुगाड होते है, संघर्ष होता है कि चाहे जितने में रख लो । ट्यूशन मिल जाएगी, य ही काफी है ।
आखिर ट्यूशन सेंटर वाले मालिक का भी इंटर कालेज की मेम्बरशिप से कुछ लेना देना था तो वो एक अच्छी इंटरव्यू देने के बाद भी नौकरी पाने में सफल हो गया । उसके मन मे ये बात हमेशा थी कि उसे इस चापलूसी, गिगिड़ाने, रिरियाने के जीवन से जल्द से जल्द निकलना है । इस लिए उसने कम्पीटिशन के इक्जाम और अन्य इलाकों में होने वाले इंटरव्यू देने जारी रखे । प्राइवेट बी एड भी कर ली, कि क्या पता यहां कोई अवसर निकल आये, सरकारी नौकरी कही भी मिल जाये, मिलनी चाहिए । उसे पढ़ने पढ़ाने में रुचि थी तो ये अध्यापन की डगर उसे अच्छी लगी ।
सरकार बढ़ती बेरोजगरी पर नियंत्रण तो नहीं कर पा रही थी पर उसने उपलबध नौकरियों में ही सेंध लगाकर, उन्हें कांट्रेक्ट नीति के अंतर्गत लाकर नए मार्ग खोज लिए थे । शिक्षा संस्थानों पर इसका असर पड़ना ही था, निजीकरण और ठेका नौकरी ने नए युग का सूत्रपात किया ।
कितने कालेज, स्कूल खुल गए, हर गली मोहल्ले में शिक्षा संस्थानों की बाढ़ आ गई । इससे सरकारी संस्थानों में गिरावट आई, गरिमा का स्तर गिरा । सरकारी शिक्षा संस्थानों में ठेके पर, संविदा पर नियुक्तियों को बढ़ावा मिला । एक रेगुलर शिक्षक को मिलने वाले वेतन पर पांच शिक्षक संविदा उतने वेतन में रखे जाने लगे । मांग ज्यादा थी, उपलब्धता कम तो जिसे जो मिला, स्वीकृति देता गया । मजबूरी और बेकरी में क्या नखरा ।आंदोलन चलते रहे, भीड़ जुटती रही । शासन इसके लिए तैयार होता रहा ।
संविदा की नौकरी करते आज उसे तीन साल हो चुके थे, अब हर साल की तरह उसकी नौकरी रीवाइज होनी थी । वो परीक्षाओं के माध्यम से संघर्ष कर रहा था । जनरल केटेगिरी होने के अपने दुष्परिणाम है ।
खैर जंग तो जारी थी । हर बार जब भी वो शहर आता, उसे यहां का जीवन जैसे फिर उत्साहित करता । और फिर ये दर्द उसकी माँ ने समझा और कहां, "बेटा तू पहले अकेला जाकर वहाँ सेट होने की कोशिश कर, भगवान तेरी मेहनत को फल दे, हम भी आ ही जायेंगे । पर तू अभी हमारे लिए ये मत सोच, हमने तो अपना काफी जीवन इसी माहौल में काट ही लिया, पर तू एक नई दिशा पकड़ , अगली पीढ़ियों की सोच । हम यहां हैं, खुश है । तू सफल हो जाएगा, तो और खुश हो जायेगें ।"
और फिर उसने शहर आकर एक अकेडमी में पढ़ाना शुरू कर दिया, साथ मे अपनी कोचिंग भी लेनी शुरू कर दी । एक बार फिर वो कम्पीटिशन की दौड़ में और तेज भागने के लिए आज पेपर देने आया था ।
इर्द गिर्द विस्तृत जीवन उसे सपनों और उमंग से भर रहा था । प्रयास जारी था ।