जो लौट नहीं पाते
जो लौट नहीं पाते
बच्चा अब ये नही कहता कि कहानी सुनाओ। शायद पापा के पास या माँ के पास कोई कहानी बची ही नही है सुनाने के लिए। उसके लिए तो परिवार चाहिए। परिवार में एक या दो बुजुर्ग चाहिए। तभी तो कहानी की किस्सों की परंपरा आगे बढ़ेगी।
"ये परिवार आखिर गया कहाँ?" इंजीनियर साहब जैसे खुद से पूछ रहे है। कभी कभी वो अचानक दार्शनिक से हो जाते हैं। ये सवाल कभी उसने अपने दादा की आखों में देखा था, दादी की आंखों में भी। तब जब वो हर बार गांव में उन्हें छोड़ वापिस पिता के साथ शहर लौटता।
अब साल भर बाद लौटा था इंजीनियर अपने गाँव। वो बड़ा हो गया था। नौकरी शुदा। पत्नी शुदा। लौटने का मतलब ये मत समझ लेना कि वो कही न जाने के लिए आया है। वो तो बस चक्कर लगाने आया है, जैसे उसके पिता जी लगा जाते हैं। यहाँ तो केवल माँ रह गई है। जो खेत, मकान की देखभाल किया करती है। दादी गुजर गई, दादा कभी इधर तो कभी उधर झूलते समय बिता रहे हैं।
इस बार पता चला है कि इंजीनियर माँ की गैर मौजूदगी को भरने आया है बस। माँ एक बड़े शहर गई है, जहां एक छोटे से घर मे उसके पिता रहते हैं और एक बहुत बड़े कारखाने में काम करते हैं। माँ की आंख में मोतिया उतर रहा है, उसी के लिए इस गांव देहात से शहर के अच्छे डॉक्टर से दूर ऑपरेशन करवाने गई है। महीना भर रुकेगीं। इस लिए इंजीनियर कुछ छुट्टी लेकर गांव आ गया है। बचपन से पिता के कारखाने वाले शहर में ही रहता रहा, वही पढ़ा लिखा। वही से एक और बड़े शहर में नौकरी मिली। अब शादी करके एक फ्लैट में रहता है। उसके पास अब उनका छोटा बेटा भी है। जो दादा और दादी से वैसे ही दूर है जैसे इंजीनियर अपने दादा दादी से रहा। नौकरी और शहर ने इसी परंम्परा का निर्वाह किया है।
गांव की जमीन बंटाई पर है। मकान दो मंजिला है , दादा जी के समय से। दादा के दो लड़के थे, सोचा होगा सब इक्कट्ठे रहेंगे। ऐसा लगभग सभी माँ बाप सोचते हैं और बड़ा घर बनवाते हैं। पहले के घरों को देखिए। खुले आंगन वाला, कई कमरों वाला घर। अब तो फ्लैट के नाम पर बिल हैं या घोंसले। आदमी पांव भी पसार कर लेटे तो दीवार से टकरा जाय। घर और दिल भी छोटे मकानों जैसे। सब अकेले रहना चाहते हैं, अपनी मर्जी से , पर मर्जी जो कही नही चल पा रही। दफ्तर हो या घर। एडजस्टमेंट ही इस जीवन की धुरी है। इसमें खुलेपन के आंगन नही होते। इसमें सिर्फ तंग केबिन होते है, घुटे घुटे से कमरे और सन्नाटे से भरे चेहरे। उनके लिए खुली हवा का मतलब बालकोनी या टेरेस होता है जहां से अक्सर महानगर में होने वाली सुसाइड की खबर छपती हैं। आत्म हत्या बड़ा गहरा शब्द है। आत्म को हत्या तो इन महानगरों के तंग मकानों में रहते, नौकरी में संघर्ष करते लोग बहुत पहले कर चुके होते हैं।
खैर भर जवानी में ही एक दादा जी का एक लड़का बीमारी से चल बसा। न अच्छा इलाज मिल पाया और न ही महंगा इलाज करवाने लायक पैसों का इंतजाम। क्या ये भी वजह रही होगी जो इंजीनियर के पापा घर बार छोड़ परदेस में कारखाने की नौकरी करने घर से हजार किलोमीटर दूर हो गए ? कौन जाने आदमी क्या सोचकर कब क्या फैसला करता है। सब अपने प्रारब्ध से जुड़े अपने आपको ढोते हैं।
इंजीनियर आजकल भाग दौड़ से परेशान है। घरवाली को नौकरी करने से आजाद कर दिया है। बच्चे को संभाले। वो सबको साथ रखने का असम्भव सा स्वप्न देखता है। पिता नौकरी क्यो नही छोड़ देते। कहते है कि अभी जब तक हाथ पांव चल रहे हैं, नौकरी कर लें। नौकरी छोड़ने से क्या होगा। चाहे छटाई भी हो गई है कारखाने की तरफ से कर्मचारियों की। आधे वेतन पर काम करने के लिए मजबूर किया है, नए वर्कर रख रहे हैं। फिर भी पिता राजी हैं। प्राइवेट नौकरी, जब तक है तब तक है। अब बच्चे तो ब्याह दिए, खर्चे कम है। वेतन आधा किया तो क्या, कम से कम अपना गुजारा तो हो रहा है।
इंजीनियर को पिता की ये सोच अजीब लगती है।सारी जिंदगी में से आधी तो किराये के मकान पर गुजार दी। गांव में खेत है, घर है अब तो कम से कम वहां रहे। खुले में जियें, हरियाली में जियें। गांव के लोगों के साथ मिले बैठें। माँ का भी साथ हो जाएगा। कम से कम दो जगह तो नही झूलना पड़ेगा। दादा जी का भी मन गांव में लगा रहेगा। पर नहीं...अब कौन समझाए। न जाने ये छोटी सी बात और सुख चैन उन्हें क्यो समझ नही आते। ऐसी भी कई असुरक्षा है मन मे गांव जाकर रहने की। बस कह भर देते है कि अभी कुछ देर और नौकरी कर लें फिर गांव ही लौटना है।
इंजीनियर अपने शहर जो कि पिता के शहर से लगभग 1000 किलोमीटर दूर था , में बैठा ये अक्सर सोचा करता। अरे मेरी तो अभी सारी पारिवारिक जिम्मेदारी पड़ी है। अपने पैरों पर हूँ। अच्छा गुजारा हो रहा है। दो बहनें थी, वे भी शादी करके अपने घर सेट हैं। तो पिता क्यों नही आराम से गांव जाकर रहते। वहाँ नही रहना तो यहां मेरे साथ रह लें। माँ भी नही सुनती। अकेली गांव बैठी है। दादा जी को मेरे पास भेज दिया, अच्छा किया। कम से कम घर का फिक्र नही रहता। बेटे को भी थोड़ा बहुत सँभाल लेते हैं। माँ कहती है कि गांव का घर खेत भी देखना है। अकेली घर रहती है। यर भी नही कि कोई कामवाली साथ रख ले। कहेगी यहां गांव में सब अमीर हैं कोई खुद को गरीब नही मानता। पुराना कपड़ा दान में नही लेता। घर मे कामवाली कहाँ से ढूंढे।
इंजीनियर ने अपनी माँ को कंजूस और पैसा दबा कर रखने वाली का मजाक किया तो माँ कहने लगी तू कोई कामवाली भेज दे और उसका अकॉउंट नम्बर रख लें। हर महीने पैसा डाल दिया करना। लगा कि माँ की बात ठीक थी। गांव में न किरायेदार मिले न नौकर। ये सब शहरों की ही खुराफात है।
इंजीनियर कई बार अपनी जिंदगी के बारे में सोचता है तो उसे पिछले दिनों अखबार में पढ़ी एक खबर का ध्यान आ जाता है। खबर थी कि अब लोग रिटायर होने पर या बूढ़े होने पर अपनी जमा पूंजी का एक बड़ा हिस्सा किसी शानदार धार्मिक स्थान को देकर अपने लिए कमरा और सुख सुविधाएं जीवित रहने तक ले लेते हैं। देखभाल, दवा बूटी और खाने पीने का पूरा इंतजाम रहता है। मतलब जैसा पैकेज लेगें वैसे ही सुविधा। जैसे ट्रैन में ए सी और जरनल कोच होते है, वैसे ही खर्च का सामर्थ्य वहां सुविधा देता है। वही रहकर समय बिताने के लिए कोई न कोई इच्छानुसार काम भी कर सकते हैं नहीं तो आराम से रहें। एक आर्मी ऑफिसर जिसके दोनों बच्चे अमेरिका सेटल हो गए थे, उनकी खबर भी थी। उन्होंने रिटायर होने के बाद एक बढ़िया होटल में परमानेंट कमरा ले लिया। यही हाल कुछ और का था। वृद्ध आश्रमों के ये स्टैंडर्ड वी आई पी ऑप्शन थे।
आखिर मनुष्य नौकरी किस लिए करता है। सारी उम्र कोल्हू का बैल बनने के लिए, इधर उधर भटकने के लिए। इंजिनीयर ने ये सब विपश्यना के एक कार्यक्रम में सुना था। परिवार का कॉन्सेप्ट तो बचा ही नही उन लोगों के लिए।
इंजीनियर जैसे अभी से अपना रिटायरमेंट के जीवन प्लान करने में लगा है, उसे ऊब है ऐसे जीने में। वो कई बार सोचता हैं, इस आपाधापी से निकल कर गांव लौट जाए। बचपन से उसे इस एक जैसी जिन्दगी से बोरियत होने लगी है। वो जैसे खुले आसमान में उड़ना चाहता हूँ।नंगे पांव खेतों की मिट्टी में दौड़ना चाहता हो। पेड़ो के झुरमुट और तालाब का किनारा उसे ज्यादा जीवंत लगते हैं बजाय किसी भीड़ भरे समुंदर तट के करीब ऊल जलूल कपड़े पहनकर सेल्फी लेती समाजिकता से।
वो लौट आना चाहता है पर क्या वाकई इतना आसान है? क्या वो इस आनन्द के लिए उन सारी तथाकथित सुविधाओं को त्याग देगा जो उसे शहर, विकास, तकनीक की चकाचौंध , सुविधाजनक परवरिश के मोहपाश में जकड़ती जा रही है। या वो इन सबको त्यागकर आनन्द, परिवार, थोड़े में सन्तुष्टि , धीमा जीवन अपना कर सारी भव्यता को ठोकर मार देगा।
इंजीनियर दोराहे पर खड़ा है, क्या वाकई वो हर फैसला लेने के लिए स्वतंत्र है, उसे अपनी पत्नी और बच्चे का मोह फिर विचलित करता है।