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Anusha Dixit

Abstract

4.7  

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सिर्फ मेरी माँ - भाग 2

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उर्मिला को दिल्ली पहुँचते पहुँचते 11:30 बज गए।उसने दरवाजा खटखटाया, रचित के 12 बर्षीय बेटे कुनाल ने दरवाजा खोला।

पापा बुआ आ गयीं।

रचित और उसकी बीबी रेनु, उर्मिला के पैर छूने के लिए आगे बढ़े।

बस बस ज्यादा फॉर्मल होने की जरूरत नहीं, जब दिल में ही इज्जत न हो तो दिखावा भी नहीं करना चाहिए।

अब बस भी करो दीदी,रेनु ने उर्मिला को मनाते हुए कहा।

माँ कहाँ है रचित।

अभी तो आयी हो दी......जरा

नहीं ,मुझे पहले माँ से मिलना है।

माँ ....माँ.... उर्मिला ने अपनी माँ को पुकारा जो खिड़की की तरफ न जाने क्या ताके जा रहीं थी।

उर्मि.....उर्मि तू आयी है।और इतना कहकर वो उर्मिला के गले कसकर लग कर बच्चों की तरह रोने लगीं।

हाँ,माँ में आ गयी तुझे लेने।

लेने,तो हम कब गाँव जा रहे हैं?शायद उर्मिला की माँ भूल गयी थीं कि अब गाँव में कुछ नहीं बचा है।

बहुत जल्द,उर्मिला ने उन्हें बहलाने के लिए कह दिया।

तभी अगले पल...... 

कौन हो तुम? और मेरे गले क्यों लगी हो,दूर हो जाओ मुझसे।

अरे माँ में उर्मि तेरी उर्मि..... ये कहकर उर्मिला रोने लगी।

तभी उर्मिला का ध्यान माँ की हालत पर गया फटी एड़ियां,काली कोहनियां,बड़े नाखून जो कहीं कहीं से बहुत नुकीले भी थे,बिखरे बाल।हाथ पैरों पर नील के निशान जो शायद गिरने से बने थे। आँखे गड्ढे में घुसी हुई ,पतली जर्जर काया, उस पर मैली सूती साड़ी, तभी उर्मिला को वो सब बातें याद आने लगीं की कैसे माँ उसका और रचित का ध्यान रखती थी।कभी वो उनके घुटने और कोहनी काली नहीं होने देती थी उन पर नारियल तेल और नींबू लगाकर अपने हाथ से साफ करती,एड़ी के फट जाने पर मधुमक्खी के छत्ते का मोम सरसों के तेल में मिलाकर लगाती, कैसे हमारे बालों को कभी रूखा न छोड़ती जबकि हम कभी कभी गुस्सा भी हो जाते थे।हमारे कपड़े कभी गंदे न होते।

माँ जवानी में कितनी सुंदर लगती थी,उसकी त्वचा दूध की तरह सफेद और मक्खन की तरह मुलायम थी।माँ कभी कोई ब्यूटी प्रोडक्ट्स नहीं लगती तब भी आज की लड़कियों को मात देती थी और आज माँ की क्या दशा हो गयी है।उर्मिला को ये सोच सोच कर बेहद दुख हो रहा था।न माँ के कानों में कुछ पड़ा था और न ही उनके हाथों में वो कंगन थे जो पिताजी की आखिरी निशानी थे।

रचित,माँ के कंगन कहाँ गए।

वो ...वो दी।इससे पहले रचित कुछ कहता रेनु बोल पड़ी।

वो क्या है न दीदी,जब माँ अपने पूरे होशोहवास में थीं तो वो कंगन उन्होंने अपनी पोती नेहा को दे दिए थे।

उर्मिला समझ चुकी थी ये लोग पूरी तरह से स्वार्थी हो चुके हैं इनसे कुछ भी कहना बेकार है।

अगली सुबह ही वो माँ को लेकर मेरठ रवाना हो गई।और जाते जाते रेनु और रचित से बोली "कभी अपने अंतर्मन से पूछना की हम अपने बच्चों के सामने क्या उदाहरण प्रस्तुत कर रहें हैं।भगवान ना करे कि कल को माँ की जगह तुम हो तो तुम कुनाल और नेहा से क्या एक्सपेक्ट करोगे?"

ट्रैन में माँ ने उर्मिला का हाथ कस कर पकड़ा हुआ था।तभी ट्रैन की खिड़की से हिरणों का एक झुंड दिखाई दिया उसे देखकर माँ बच्चों की तरह खुश होकर ताली बजाने लगी।माँ की इस हरकत पर उर्मिला को उन पर बहुत प्यार आया क्योंकि माँ जब से मिली तब से बस उदास ही थी।

उर्मिला सोच रही थी घर पर सुबोध बच्चे कैसे रियेक्ट करेंगे। शुरुआत में थोड़ी परेशानी होगी लेकिन धीरे धीरे सब एडजस्ट हो ही जायेगा।

क्रमशः भाग 3 में पढ़े.......


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