मुक्ति- भाग 2
मुक्ति- भाग 2
जमुना अपने घर पहुंच चुकी थी।उसे वहां एक विचित्र सी शान्ति का अनुभव हुआ।उसने सामने देखा तो आँगन के बीचों बीच एक दिया जल रहा था।उसने अपने पिता को पुकारा"पिताजी, पिताजी देखो तुम्हारी राजकुमारी आ गयी"कहाँ हो?"जमुना की आवाज सुनकर रामपाल बाहर आये औऱ बोले "तू अब आयी है जमुना, तेरा बाप तेरी राह ताकते ताकते इस दुनिया को छोड़कर चला गया।" इतना कहकर वो रोने लगे।
इतना सुनते ही जमुना अपना आपा खो बैठी औऱ दौड़ती हुई खेतों की तरफ भाग गई।"पिताजी, पिताजी देखो तुम्हारी जमुना आ गई।तुम कहाँ हो ?मुझे पता है तुम मुझसे मजाक कर रहे हो।पिताजी पिताजी कहाँ हो तुम?" उसकी हृदय विदारक चीखें सुनकर उस दिन शायद धरती भी फट पड़ती।उसका पति हरिराम और रामपाल बड़ी मुश्किल से उसे घर लेकर आये।घर आकर वो बेहोश हो गयी।जब उसे होश आया तो उसने रामपाल से पूछा
"चाचा पिताजी इतने दिन से बीमार थे,तुमने मुझे एक बार भी न बताया।और आज उन्हें पूरे दस दिन हो गए ,मुझे अब पता चल रहा है,क्यों किया तुमने ऐसा?"हरिराम की तरफ देखते हुए रामपाल बोले,जो अब अपराधियों की तरह सिर झुकाये बैठा था।
"गया था तेरी ससुराल बिटिया,दामाद बाबू और तेरी सास से तुझे भेजने को भी कहा था ये भी बताया कि तेरे पिता का अंतिम वक़्त चल रहा है।तो उन्होंने कहा वो तुझे भेज देंगे।लेकिन तू नहीं आयी।"जमुना ने हरीराम से लगभग चीखते हुए कहा "आपने मुझे क्यों कुछ नहीं बताया?क्यों नहीं भेजा मुझे उनके पास। क्या एक लड़की शादी के बाद इतनी परायी हो जाती है कि उसे अपने माता पिता से मिलने का अधिकार भी नहीं रह जाता।क्यों किया ऐसा?" हरिराम ने धीरे धीरे बोलना शुरू किया "देख जमुना, रज्जो की शादी थी।अम्मा जी ने तुझे भेजने से साफ मना कर दिया था और तू तो जानती है उनके आगे किसी की न चलती है।"
जमुना को अब छले जाने का एहसास हो रहा था।उसे अब न किसी पर विश्वास रह गया था न किसी से कोई उम्मीद।हरिराम जमुना को वीरपुर छोड़कर अपने घर वापस चला गया।जमुना दिनभर अपने पिता को याद करके रोती रहती।एक महीने बाद हरिराम उसे लेने आ गया।जमुना को अब ये दुनिया झूठी लग रही थी,उसका मन बहुत उदास औऱ बेज़ार हो गया था।अब वो अपने ससुराल वापस आ गयी।उसने शून्य भाव से अम्माजी जी की ओर देखा।बहुत कुछ पूछना चाहती थी वो पर कुछ ना बोल पायी।स्थिति को भाँपते हुए अम्माजी बोली"देख जमुना हमें न पता था तेरो बाप चल बसेगो न तो हम तुझे भेज न देते,अब जाने वाला तो चले गयो तू कब तक शोक मनाएगी मुँह हाथ धो कर लग जा काम पर,एक कप चाय बना लिए और जे पड़े हुए बर्तन भी मांज देना।"जमुना की रुलाई फ़ूट पड़ी पर यहाँ तो उसके आँसू पोछने वाला भी कोई न था।जमुना के चेहरे की हँसी अब गायब सी हो गयी थी।काम में भी उससे गलतियां होने लगी थीं।कभी कोई कांच के बर्तन टूट जाता तो कभी सब्जी में नमक रह जाता।अब उसकी मार भी लगना शुरू हो गयी थी।वो अंदर से बिल्कुल निराश हो चुकी थी उसने अपना ध्यान रखना भी छोड़ दिया था।न उसे भूख लगती न प्यास।उसका शरीर कमजोर भी बहुत हो गया था।धीरे धीरे उसकी तबियत खराब रहने लगी।खाँसी जाने का नाम नहीं ले रही थी,और बुखार भी रहता था।गांव के एक वैध को दिखाया तो पता चला जमुना को छय रोग यानी टी बी हो गया है।वैध ने कुछ दवाई दी और जमुना को सबसे दूर रखने की सलाह दी।
अब जमुना का कमरा घर के बाहर गाये भैसों के रहने के बाड़े के बिल्कुल बराबर था।जहाँ उसे दो वक्त का रूखा सूखा खाना भेज दिया जाता था।न अब उससे कोई बात करने वाला था न ही उसकी कोई खबर लेने वाला।जमुना रोज खिड़की से घर के वाकी सदस्यों को देखती रहती लेकिन उसे अंदर जाने की मनाही थी।अब तो हरिराम भी उधर को मुँह नहीं करता था।
उन गाये भैसों के बाड़े में एक तोता भी पलता था जो एक पिंजड़े में रहता था जमुना उसे खिड़की से अपने खाने में से एक टुकड़ा जरूर खिला देती थी।अब बस वही था जिससे वो अपना मन लगाए रहती थी।एक दिन वो बोली" तुझमे और मुझमें कितनी समानता है तू इस लोहे के पिंजरे में कैद है और में इस शरीर में।अब तो बस लगता है 'मुक्ति' मिल ही जाए।"
अगली सुबह जब घर की नौकरानी उसे खाना देने पहुंची तो उसकी चीख निकल गयी। अब जमुना का शरीर निष्प्राण हो चुका था और पिंजरे का दरवाजा भी खुला था।तोते को इस पिंजरे से और जमुना को इस शरीर से " मुक्ति"मिल गयी थी।