सीताराम
सीताराम


बड़ा सा कच्चा आँगन ! बरसात में मिट्टी की ख़ुशबूँ ग़ज़ब की मदहोशी भर देती। आँगन के आख़िरी छोर (दक्षिण दिशा में)पर बैंगन के दो पौधे। अपने खुरदुरे पत्तों और, छोटे छोटे काँटों से युक्त टहनियों के साथ मानो दो चौकीदार खड़े हैं। दो परिवारों का एक ही आँगन। छोटे दादा जी और हमारे दादा जी। दोनों सगे भाई नहीं, पर प्यार सगे से बड़ कर। दरअसल मेरे पड़दादा दो भाई थे। दोनो के एक एक लड़के —- दादाजी और छोटे दादा जी । मेरे दादा जी की एक छोटी बहन भी थी। छोटे दादा जी अकेले । दोनों की उम्र में पंद्रह साल का फ़र्क़। तो आँगन दो परिवारों का,परंतु उन बैंगन के पोधों पर हमारे परिवार का एकाधिकार था।
एक गलीनुमा रास्ता आँगन तक आता, बाएँ हाथ पर सबसे पहले छोटे दादा जी की बैठक, लगभग अठारह फ़ीट लम्बा और दस फ़ीट चौड़ा कमरा। उसके बाद हम लोगों के दो कमरे आगे पीछे। फिर रसोई (उत्तर दिशा की तरफ़) , रसोई से लगा स्नानघर। हलके होने सब बाहर जाते। बैठक से लेकर रसोई तक सात फुट चौड़ा बरामदा। लकड़ी के तीन खम्बों पर टिक्का बरामदा।बैठक, दो कमरे और बरामदे पर टिन पड़ी हुई थी। नट बोल्ट से कसी टिन की चादरें (स्लोप लिये हुये)। बैठक और दो कमरों के ऊपर दुछत्ती थी। टिन के स्लोप पर नट / बोल्ट से बचते हुये फिसलना भी एक खेल था। पर जब कोई कपड़ा फँस कर फट जाता तो पिटाई भी निश्चित होती । दुछत्ती में मकई, और दूसरा सामान रखा जाता।
हम लोगों की रसोई के बगल में छोटे दादा का एक और कमरा जिस पर टिन पड़ी थी पर उसका स्लोप बहुत हल्का था। उस कमरे को एक छोटे स्टोर और एक कमरे में बाँटा गया था । पूर्व दिशा की और छोटे दादा की रसोई थी। दक्षिण पूर्व में ख़ाली जगह में ऊखल रखा हुआ था।
बैंगन के पौधों के आगे हल्की दीवार थी ज़रा सा उतर कर पंडित सीताराम और उनकी पत्नी सुखदेवी का कच्चा मकान था। दो कमरे , एक रसोई।बैंगन के पोधों की बग़ल में राख की छोटी सी ढेरी और एक बड़ा सा टाइलनुमा पत्थर रखा हुआ था । उस पत्थर पर ही बर्तन माँज कर रखे जाते।एक नाली गली पार करके पंडितजी के आँगन से गंदा पानी ले जाती ।पंडित जी की रसोई के एकदम पीछे एक पत्थर का कुंडा( बर्तननुमा पत्थर, जिसका पानी पॉटी धोने के लिये प्रयोग होता था)।
सीताराम पंडित जी दरम्याने क़द के ,बड़ी बड़ी सफ़ेद मूँछों वाले धाकड़ थे। पंडितायी करते थे या नहीं, पर पैर की मोच निकालने में माहिर।
पंडित जी अक्सर उखड़े रहते, एक तो कच्ची नाली जब तब टूट जाती और गंदा पानी उनके आँगन में चला जाता ।दूसरे कुंडा (पॉटी धोने वाला ) उनकी रसोई के पीछे । नाली पक्की कराने नहीं देते , उनको ल
गता यह लोग नाली बनवा कर क़ब्ज़ा कर लेंगे ।दादाजी सरकारी नौकरी में थे। उनके सामने पंडितजी कुछ नहीं बोलते । पर उनके जाते ही शुरू हो जाते । यह ज़मीन इन लोगों को नहीं दूँगा चाहे किसी को भी दे दूँ , बहुत गंदगी फैलाते हैं। दरअसल पंडित जी के कोई औलाद नहीं थी।
वो बैंगन के पौधे हम सभी के लिये अजूबे की तरह थे। जैसे ही किसी को फूल दिखता , तुरंत भाग कर बताता सबसे पहले मैंने देखा । फिर वो बैंगनी रंग का फूल छोटे से हरे रंग का हो जाता , फिर बड़ते बड़ते बैंगनी। मानो ताज पहने कोई राजा लटक गया हो।एक कहानी सा लगता।
सीताराम कई लोगों को अपना घर बेचने की कोशिश करते रहे। पर बात बनी नहीं।हमारे बग़ल के एक फ़ौजी की बात लगभग पक्की हो गयी थी। फिर दादाजी ने न जाने क्या समझाया सीताराम अपनी ज़मीन हम लोगों को देने को तैयार हो गए इस शर्त के साथ कि दोनों के मरने के बाद ही ज़मीन हमारी होगी।
सीताराम पंडित जल्दी चल बसे। सुखदेवी कुछ महीने तो अकेले रही। फिर दूर के एक रिश्तेदार अपने साथ ले गये । दो महीने बाद ही वापिस छोड़ने के लिये ।अब सुखदेवी हम लोगों के साथ रहने लगी।वो रोटियाँ बनाती और हम बच्चों को खाना भी परोस देती।कभी कभी अपनी कहानी बताती “ मेरे रिश्तेदार (जो मुझे ले गया था ) ने मेरे सारे ज़ेवर / पैसे हड़पने तक खूब सेवा की । फिर वापिस छोड़ गया। तुम्हारे दादा ने जो पैसे दिये थे वो भी हड़प लिये । मैं बोलता “दादी क्या करना पैसे और ज़ेवर का “ आराम से रहो । बेटा तू बड़ा हो कर बड़ा आदमी बन जाना और मेरा भी ख़याल रखना । हाँ मैं बालसुलभ मन से बोल देता। सुखदेवी दादी से बहुत डाँट खाती। शुरू में तो वह जवाब देती ,धीरे धीरे लड़ना छोड़ दिया। दादा जी सुखदेवी के कपड़े जूते दवा सब का ध्यान रखते। शायद इसीलिये क़िस्मत से समझौता कर लिया उन्होंने।
जब तक वो ज़िंदा रही , उनके मकान वाले हिस्से में कुछ भी नहीं बनाया गया। उनके मरने के बाद ही उस हिस्से में दो कमरे एक रसोई एक गुसलखाना बना । पक्का आर॰सी॰सी॰ की छत वाला , हमारे गाँव की पहली आर॰ सी॰ सी की छत। वो हिस्सा चाचा जी को दिया गया। पर आज उसमें कोई नहीं रहता । गाँव का प्रथम लिंटेर वाला मकान ख़ाली है। लगता है पंडित सीताराम और उनकी पत्नी ने उसको किसी को दिया ही नहीं। चाचाजी ने ख़ेत के पास मकान बना लिया अपने लड़कों के साथ वँही रहते हैं। अब चाचा जी भी शायद मकान को बेचने की सोच रहें होंगे। पर क्या पंडित सीताराम बेचने देंगे? सफ़ेद मूछों वाले धाकड़ सीताराम। धोती पहने सीताराम अपने मकान की रखवाली करते सीताराम।