भोंदू
भोंदू
“यह पोहा आपके लिये लाई हूँ ” उसने हाथ में पकड़े केस रोल को आहिस्ता से सलीके से स्टूल पर रखा। अपने माथे की बिन्दी को चोरी से स्टील के केस रोल में झांका। “ पता नहीं बिन्दी पसन्द आई या नहीं विनय को ” राखी ने कनखियों से विनय को देखा। वो एकटक उसको देखे जा रहा था।
सुनो। ऐसे मत देखो, देवेंद्र इधर ही देख रहा है, कहने को तो राखी बोल गई, पर कहीं भीतर उसको बहुत अच्छा लगा।
क्यों न देखूँ ? गुलाबी बिन्दिया लगा कर गुलाब लग रही हो, एकदम ताज़ा गुलाब ” विनय इतने धीमे से बोला कि केवल राखी सुन पाये। परन्तु राखी के शर्म से लाल पड़ते चेहरे को
देख देवेंद्र काफ़ी कुछ समझ गया। वो बेशर्मी से कुर्सी खींच कर विनय के सामने बैठते हुए बोला “क्या खिलाया जा रहा है भाई को।" ऐसे तो आप मेरे भाई को उड़ा ले जाओगी।
आओ भाई, बैठो कोई किसी को नहीं उड़ा रहा, तुम ही उड़ रहे हो, वो भी सातवें आसमान पर। विनय ने ठिठोली की।
राखी ने विनय को खा जाने वाली नज़रों से घूरा। अब यह खाये बिना जायेगा नहीं, विनय इतना सीधा क्यों है ? समझता ही नहीं, आधा घंटा साथ बैठ लेते अकेले में, अक्ल नहीं ज़रा सी, “आओ भाई बैठ जाओ ” बिठा लो भाई को, इसी से प्यार भी कर लेते भोंदू। राखी प्लेट निकालते हुए मन ही मन बोली।