Dr Jogender Singh(jogi)

Children Stories

4.5  

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मेरी तो जीभ ही नहीं है

मेरी तो जीभ ही नहीं है

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“ साहब !! नाश्ता बन गया है, ले आया हूँ, प्लेट में निकाल दूँ ? ईश्वर ने मेरे हॉस्टल के कमरे के दरवाज़े को धीरे से खोल कर पूछा।

नहीं — अभी नहीं, मैं फ़्रेश हो कर, नहाने के बाद ही नाश्ता करूँगा। मुझे हैरानी हो रही थी कि जो कुक मेस में खाना / नाश्ता देने में इतनी देर करता है, वो कमरे में आ कर पूछ रहा है ? 

खा लीजिए साहब, गर्मागर्म पकौड़ी बनी है। उसने प्लेट को मेज़ पर रख दिया और केसरोल का ढक्कन खोलने लगा।

रुक जा भाई, मैं बिना नहाये कुछ नहीं खाऊँगा। 

खा ले भाई, बहुत अच्छी बनी है। मेरे रूम पार्टनर धीरज ने ज़ोर दिया।

दरअसल होली का दिन था। छुट्टी होने के कारण मैं देर रात तक स्टडीज़ करता रहा था। 

“ क्या तूने खा लिया भाई ? मैंने धीरज से पूछा। 

“हाँ !! साहब तो मेस में जाकर कर आये ” ईश्वर ने जवाब दिया। वो धीमे से मुस्कुरा रहा था। ईश्वर का मुस्कुराना मेरे लिए किसी अजूबे से कम नहीं था। क्योंकि वो एकदम रूखा इंसान था, भावविहीन।

ठीक है, रख दो। मैंने अपना तौलिया उठाते हुए कहा। मैंने बाल्टी उठाई और बाथरूम में चला गया। 

नहा / धो कर जब वापिस आया तो धीरज ग़ायब था। मैं पूजा कर के खाने बैठा और ढेर सारी पकौड़ी खा गया। पकौड़ियों बहुत लज़ीज़ थी। मैं प्लेट रख कर थोड़ी और चाय पीने मेस की तरफ़ चल दिया।

“ कैसी लगी साहब ? ईश्वर की मुस्कुराहट गहरा गई थी। थोड़ी और दूँ ? 

नहीं, चाय पीला दीजिए। पेट भर गया। बहुत स्वादिष्ट थी। क्या डाला था पकौड़ियों में ? 

“ भाँग डाली थी, विजय ने ठहाका लगाया। विजय भी हम लोगों का क्लास मेट है। टूट गया ना तुम्हारा कोई भी नशा न करने का प्रण।

मैंने ईश्वर के चेचक के दाग से भरे क्लीन शेवड सांवले चेहरे को घूरा। वो हँस रहा था। 

मुझे अपना सिर घूमता हुआ लगा। 

नहीं मिलाई है, पागल !!! विजय मुस्कुराया।

मैं चुपचाप चाय पीकर अपने कमरे में आ गया। कुछ अजीब सा लग रहा था, पर अच्छा भी लग रहा था।

तभी धीरज आ गया। “ चलो यार रंग खेलें, सिर कुछ उड़ सा रहा है, पता नहीं क्यों ? 

मेरा भी — मैं अचानक चौंक गया। पक्का इस विजय ने पकौड़ियों में भाँग मिलवा दी है।

 कोई नहीं।चलो होली खेल लेते हैं। हम दोनों भी लड़कों की टोली में शामिल हो गये। ढोल वाले की तान पर “रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे ” गाने पर सारे लड़के नाचने लगे। नाचते / नाचते मोहल्ले की तरफ़ घूम गये। सभी लगातार नाचते रहे। लोग बाल्टी से, पिचकारी से रंग डालते रहे। दो बजे लौट कर हॉस्टल आए।नहा कर कपड़े बदल कर मेस में खाना खाने पहुँचे तो सभी ने रोज़ के मुक़ाबले दो से तीन गुना खाना खा डाला। ईश्वर की शक्ल देखने लायक़ थी। 

खाना खा कर मैं, धीरज, आलोक और प्रभात ताश खेलने बैठ गये। पहली बाज़ी के बीच में ही आलोक ने हँसना शुरू कर दिया।अब हम सभी हाथ में ताश के पते पकड़े बस हँसते रहे। 

श—— चुप !! प्रभात ने होंठों पर उँगली रख कर चुप रहने का इशारा किया और ज़ोर / ज़ोर से हंसने लगा।हम सब एक बार फिर से हाथ में पते पकड़े / पकड़े हँसने लगे।

थक कर अपने / अपने कमरे में सोने चले गये।

अभी मैं और धीरज दोनों अपने / अपने पलंग पर घोड़े बेच कर सो ही रहे थे। तभी बाहर से दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ के साथ विजय की आवाज़ आई “ उठो बे, जल्दी आओ। 

हम दोनो हड़बड़ा कर उठे। क्या आफ़त आ गई ? धीरज ने दरवाज़ा खोलते हुए पूछा।

जल्दी चलो !! मनोज के कमरे के बाहर हर्षित ड्रामा कर रहा है। सब लोग वहीं इकट्ठे हैं।इतना बोल कर विजय सीड़ियों की तरफ़ भागा। मनोज का कमरा तीसरी मंज़िल पर था।मैं और धीरज भी जल्दी से चप्पल पहन कर मनोज के कमरे की तरफ़ भागे। मनोज के कमरे के बाहर लॉबी में मेला लगा था। हर्षित हर किसी के पास जाता, अपना मुँह खोल कर दिखाता फिर बोलता “ “ मेरी तो जीभ ही नहीं है ” देखो। जिस के पास भी जाता यही दोहराता। हमारे सीनियर श्यामधर और शिवप्रताप उसको सम्भालने की कोशिश कर रहे थे। पर हर्षित को सम्भालना मुश्किल हो रहा था। हर्षित ने धीरज को भी मुँह खोल कर दिखाया और बोला “ मेरी तो जीभ ही नहीं है ”। धीरज को न जाने क्या सूझा उसने भी अपना मुँह खोला और बोला “ मेरे भी जीभ नहीं है “।एकाएक गम्भीर हर्षित ख़ुशी से चिल्लाया “ इसके भी जीभ नहीं है ”। मानो हर्षित की सारी चिन्ता दूर हो गई। वो इसके भी जीभ नहीं है, बड़बड़ाता हुआ अपने कमरे में जा कर सो गया। फिर कई दिनों तक हर्षित को देखते ही हम लोग बोल पड़ते “ मेरी तो जीभ ही नहीं है”। जीवन की उस रंग बरसाती भाँग वाली होली की यादें शायद ही किसी के ज़ेहन से मिटी हों। उस दिन जितने भी लोगों को हर्षित ने अपना मुँह खोल कर दिखाया होगा, वो सालों बाद आज भी उसे देखते ही बोलेगें “ मेरी तो जीभ ही नहीं है ”। “ मेरी तो जीभ ही नहीं है।”


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