श्रीराम की पीड़ा
श्रीराम की पीड़ा
श्रीराम, रानी कौशल्या और राजा दशरथ के बड़े बेटे थे। दशरथ के तीन रानियों में कौशल्या पहली रानी थीं। दूसरी रानी कैकेयी... राजा दशरथ को सबसे प्रिय थीं। दशरथ का अधिक समय कैकेयी के साथ ही व्यतीत होता था। इसलिए कौशल्या के जीवन में एकाकीपन व्याप्त था। जननी की इस पीड़ा को राम ने बचपन से ही अनुभव किया। संभवतः यही कारण रहा होगा कि राजसी भोग और सामंती ऐश्वर्य उनके चरित्र मे नहीं आया। जब श्रीराम, ऋषि विश्वामित्र के साथ भ्रमण के लिए विदा हुए , तब उन्होंने आम जीवन को देखने और समझने का पूर्ण प्रयास किया। भ्रमण के दौरान उन्हें शापित..शिलावत अहिल्या मिली। उन्होंने शिलावत अहिल्या का तत्क्षण उद्धार किया और समाज में उस शापित नारी की अस्मिता तथा सम्मान को पुनर्स्थापित करके भी दिखाया। इसी भ्रमण के क्रम में जब वो मिथिला की भूमि पर पधारे ,तब उन्हें मिथिला नरेश राजा जनक की पुत्री, सीता के बारे मे पता चला। सीता से विवाह करने हेतु स्वयंवर सभा में... जैसे ही उन्होंने अपने अप्रतिम वीरता, पौरुष दिखाते हुए शिव के धनुष को तोड़ा। उसी क्षण सीता ने उनके गले में वरमाल पहनाया। राम ने सीता को वचन दिया कि मैं सदा एक पत्नीव्रती रहूँगा और जीवन में लाख मुसीबत आने पर ऐसा किया भी।
पिता दशरथ के वचन का मान और विमाता कैकेयी का सम्मान रखने हेतु श्रीराम ने अपना अधिकार छोड़ते हुए सीता के साथ वन जाना स्वीकार कर लिया। वन में सीता का रावण के द्वारा हरण हुआ। सीता की खोज में वह दर-दर भटकते रहे। पत्नी को वापस अपने पास लाने के लिए उन्होंने महाबलशाली, लंकापति, आततयी रावण से संग्राम किया और उसी राक्षसराज के छोटे भाई से विभीषण से भेद जानकार रावण के जीवन का अंत कर डाला। अनेक यातनाओं और कठिनताओं को झेलते हुये श्रीराम सीता को वापस लाने में सफल हुये। उन्होंने सीता की अग्नि परीक्षा कराकर उसकी निष्कलंकता को समाज के समक्ष स्थापित कर दिया। लेकिन, अपनी ही प्रजा ..धोबी द्वारा सीता पर लगाए गए कलंक से वह बहुत मर्माहत हुए। राजा होने की मर्यादा की रक्षा हेतु उन्हें सीता को अपने से अलग करना पड़ा। निश्चय ही यह उनके जीवन का बहुत ही कष्टदायक क्षण रहा होगा। एकपत्नीव्रता की मर्यादा का सम्मान करते हुये उन्होंने अपने यज्ञ में वाम पार्श्व में पत्नी के स्थान पर सीता की स्वर्ण मूर्ति को ही रखा! राजा होकर भी नियति के आगे उन्हें घुटने टेकने पड़े ! भाग्य की विडम्बना के साथ वो जीते रहे !इतना ही नहीं ,कालांतर में जब सीता, बाल्मीकी आश्रम से उनके पास वापस आई, तो अपने जीवन से अत्यंत दुखी एवं विरक्त होकर दोनों बेटे, लव और कुश को उन्हें सौंप...वह धरती में समा गईं।
श्रीराम की पीड़ा का कोई अंत नहीं था। फिर भी मर्यादा, धर्म और आदर्श के उच्चतम मानदंड का अनुपालन करने में वो कभी पीछे नहीं हटे। जीवन की पीड़ा को उन्होंने अवसर बना लिया। इसलिए ... इस पृथ्वी परश्रीराम ही एकमात्र मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए।