प्रतीक्षा
प्रतीक्षा


सर्द रात, दूर-दूर तक सन्नाटा, पूर्णिमा का चाँद पूरे यौवन पर अपनी छटा को बिखेरता हुआ। छम-छम की मधुर आवाज ने सन्नाटे को कुछ देर के लिए भंग कर दिया, सूना कच्चा रास्ता उसके आने से कुछ क्षणों के लिए अपनी नीरवता को खो बैठा।
उसका लम्बा छरहरा बदन जो दुल्हन के लिबास में लिपटा हुआ था सर्द चांदनी में नहा उठा। उसके अलसाये कदम धीरे-धीरे आगे बढ़ चले, उसके गले में पड़ा स्वर्ण हार, हँसुली, स्वर्ण बाजूबंद, स्वर्ण कंगन, स्वर्ण करधनी, माथे का टीका शीतल चांदनी में दमक रहे थे।
उसके कदम एक क्षण के लिए थम गए और कच्चा रास्ता छोड़ कर संकरी सी पगडण्डी पर चल पड़े। यदा-कदा उसके नंगे पांव पगडण्डी छोड़ कर ओस से भीगी घास पर भी पड जाते लेकिन पुनः पगडण्डी पर चल पड़ते।
उसके सामने था सैकड़ों कोस तक फैला घना जंगल, जिसके रात्रिचर पशु पक्षी या तो शांत थे या वन से प्रस्थान कर चुके थे। जंगल के किनारे पर ही तो है वो विशाल वट वृक्ष जहाँ विकर्ण ने उससे मिलने का वचन दिया था। लेकिन वो लम्बा, बलिष्ठ नौजवान विकर्ण तो अभी तक नहीं आया था।
कुछ देर वो ठगी सी खड़ी रही और फिर प्रारम्भ हुआ विकर्ण की प्रतीक्षा का अनवरत सिलसिला। वो व्याकुल हिरणी सी इधर-उधर देख रही थी, भटक रही थी। रात्रि का अंतिम पहर आ पहुंचा लेकिन विकर्ण आज फिर नहीं आया, ये पूर्णिमा की रात्रि व्यर्थ गई।
उसने एक बार आकाश की और देखा और फिर प्रारम्भ हुआ उसका रुग्ण सा विलाप। उसने एक-एक कर अपने आभूषण उतार कर धरा पर फेंक दिए, उसका बनाव श्रृंगार बिगड़ चुका था, उसके केश बिखर चुके थे। उसका विलाप चारों दिशाओं में गूँज रहा था।
भोर की बेला से पूर्व ही उसे चले जाना था, और फिर पूरे एक माह उस पाषाण महल उसे अगली पूर्णिमा की रात के आने की प्रतीक्षा ही तो करनी थी। आखिर पूर्णिमा की रात्रि को मिलने का वचन दिया था उस सजीले नौजवान विकर्ण ने।
उस पूर्णिमा की रात अपनी शादी के मंडप से उठ कर उस निर्मोही विकर्ण से मिलने चली आयी थी। वो निष्ठुर उस पूर्णिमा की रात उसके आगोश में रहा था, प्रेमालाप और प्रत्येक पूर्णिमा मिलन के वचन लिए और दिए गए थे।
भोर होने से पूर्व ही उसने जो विष युक्त पेय स्वयं पिया था और विकर्ण को भी पीने को दिया था, उसका प्रभाव दिखने लगा था। वो कायर मृत्यु के भय से रुदन करने लगा था, कितना अविवेकी था वो उसे ज्ञात न था की मृत्यु ही उन दोनों को एक कर सकती थी नहीं तो एक राजकुमारी का सामान्य व्यक्ति का मिलन कहाँ सम्भव था। लेकिन वो निर्मोही तो भोर होने से पूर्व ही चिर निद्रा में सो गया था और उसे वो चिर निद्रा कुछ देर से आयी थी। समय के उस चक्र में ही वो कहीं खो गया था। लेकिन कभी न कभी पूर्णिमा की किसी रात वो उसे मिलेगा जरूर। उसकी सदियों की प्रतीक्षा का कभी तो अंत होगा।