साम्राज्य शत्रु : साम्राज्य
साम्राज्य शत्रु : साम्राज्य
'कृषक पुत्र विकर्ण तुम मकरकेतु के चक्रव्यूह में फंस चुके हो तुम मुझ जैसी नगर वधु के लिए अपने प्राण दांव पर क्यों लगा रहे हो?' दामिनी विकर्ण के साथ दौड़ते हुए बोली, 'तुम ऐसा क्यों कर रहे हो?'
'दौड़ती रहो दामिनी; मेरा अश्व ज्यादा दूर नहीं है, एक बार हम उसके पास पहुँच गए तो मकरकेतु हमें पकड़ न सकेगा।' विकर्ण उस सुनसान मार्ग पर दौड़ते हुए बोला, 'देवी मकरकेतु ने आपको कदाचित इस लिए अगुआ किया था कि वो मुझसे द्वन्द कर सके। आज मैं उसकी इस इच्छा को अवश्य पूर्ण करूँगा, परन्तु सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि मैं आपको इस युद्ध से दूर छोड़ आऊँ उसके उपरांत मकरकेतु और मेरा निर्णायक युद्ध होगा, कल का सूर्य हम दोनों में से एक ही देख सकेगा।'
'तुम व्यर्थ में अपने प्राण गँवाने वाले हो कृषक पुत्र।' दामिनी थक कर खड़े होते हुए बोली, 'मैं और नहीं दौड़ सकती कृषक पुत्र; तुम भी यवन साम्राज्य के सामंत मकरकेतु से बच न सकोगे, यवन सम्राट फिल्लिपुस की पुत्री के जन्मदिवस के समारोह से मकरकेतु रात्रि के अंतिम प्रहर में वापिस आ जाएगा; उसके उपरांत तुम उस सामंत से अपने प्राणो की रक्षा न कर सकोगे।'
'नगर वधु क्या तुम काल गढ़ में प्रशन्न हो?' विकर्ण रुकते हुए बोला, 'यदि हाँ तो फिर तुम नगरशाला में वापिस जाने के लिए और अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र है।'
'कदाचित तुम क्रोधित हो गए कृषक पुत्र।' दामिनी विकर्ण की तरफ देखते हुए बोली, 'कृषक पुत्र हम नगर दासियाँ नगर के नागरिकों का मनोरंजन करने के लिए ही तो है।' दामिनी उस सुनसान रास्ते को पीछे तरफ देखते हुए बोली, 'मैं मुर्खा भी तुम्हारी बातों में आकर नगरशाला से निकल आई।'
'तुम सत्य कह रही हो नगर दासी।' पीछे से मकरकेतु की आवाज आई।
दामिनी और विकर्ण ने पीछे मुडकर देखा। मकरकेतु एक स्वेत वर्ण के विशाल अश्व पर सवार था और उसके नेत्रों की रक्त पिपासा उन दोनों को साफ़ परिलक्षित
हो रही थी।
'लेकिन इस कृषक पुत्र के साथ भाग कर तुमने अपने जीवित रहने के अधिकार को खो दिया है।' मकरकेतु अपने विषाक्त स्वर में बोला, 'रक्षको इस नगरदासी को बंदी बना लो, तब तक मैं इस कृषक पुत्र से कुछ वार्तालाप करना चाहता हूँ।'
विकर्ण ने अपनी खडग निकाल ली और वो दामिनी को बंदी बनाने आ रहे रक्षको से युद्ध करने के लिए तैयार हो गया।
'मूर्खता मत करो कृषक पुत्र।' दामिनी विकर्ण को युद्ध करने से रोकते हुए बोली, 'ये मुझे बंदी बनाकर इस नारकीय जीवन से मुक्त कर देंगे, तुम भी तो यही करने आए थे न योद्धा। अब अपना जीवन की रक्षा करो, मकरकेतु एक धूर्त व्यक्ति है उससे सावधान रहना।'
कुछ संघर्ष के बाद लगभग १० रक्षको ने विकर्ण को बंदी बना लिया।
'जाओ दामिनी यदि जीवित रहा तो तुम्हे इस दुष्ट नगरी से अवश्य मुक्त कराऊँगा।' विकर्ण मकरकेतु की तरफ देखते हुए बोला, 'इस मुर्ख सामंत को पहले भी परास्त कर चुका हूँ इस बार भी करूँगा।'
'जीवित बचोगे तब परास्त करोगे न।' मकरकेतु अपने अश्व से उतरते हुए बोला, 'आज तुम्हारा दिवस नहीं है मुर्ख कृषक पुत्र। यह यवन साम्राज्य है मुर्ख, तुम सिर्फ यवन साम्राज्य के सामंत को चुनौती नहीं दे रहे हो बल्कि यवन साम्राज्य को ही चुनौती दे रहे हो। कल तुम्हे यवन सम्राट के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा और तुम्हे एक यवन सामंत पर आक्रमण करने के अपराध में मृत्युदंड दिए जाने की मांग की जाएगी।'
'मकरकेतु अभी तुम्हारा बंदी हूँ; यदि मुर्ख नहीं हो तो मुझे अभी समाप्त कर दो।' विकर्ण रक्षको के साथ जाते हुए बोला, 'यदि मुझे एक भी अवसर मिला तो मैं स्वयं को मुक्त कर लूँगा और तुम्हे यमलोक पहुँचा कर ही विश्राम करूँगा।'
'दिवास्वप्न देखते रहो मुर्ख।' मकरकेतु पुनः अपने अश्व पर सवार होते हुए बोला, 'कल सूर्य अस्त होने से पूर्व यवन साम्राज्य का यह शत्रु जीवित नहीं रहेगा।'