Kumar Vikrant

Tragedy

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Tragedy

कर्ण अश्वथामा संवाद : पौराणिक

कर्ण अश्वथामा संवाद : पौराणिक

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"महाराज।" कर्ण के द्वारपाल ने उसके युद्ध विश्राम शिविर में प्रवेश करते हुए कहा, "आचार्य द्रोण पुत्र अश्वथामा आपसे भेंट करने आए है।"

"ठीक है।" कर्ण चिंतित मुद्रा में बोला, "उन्हें आदर के साथ ले आओ।"

आज कर्ण का कोरवो की सेना के सेनापति बने हुए प्रथम दिवस था, पूरे दिन के भयंकर संग्राम के उपरांत कर्ण कुछ देर विश्राम करना चाहता था ऐसे में वह अश्वथामा के आगमन से थोड़ा विचलित हो उठा, प्रत्यक्षतः आज वो किसी से किसी भी प्रकार के वार्तालाप का इच्छुक नहीं था इसके उपरांत भी उसने उसके शिविर में प्रवेश कर चुके अश्वथामा का स्वागत किया। 

"आओ अश्वथामा, कहो किस प्रयोजन से आना हुआ?" 

"प्रणिपात सेनापति।" अश्वथामा कर्ण की शायिका के समीप रखे आसन पर बैठते हुए बोला, "आप सेना के सेनापति है इसलिए मेरे मस्तिष्क अचानक हुई शंकाओ के समाधान के लिए आपके शिविर में चला आया।"

"अच्छा किया।" कर्ण अश्वथामा का परिणाम स्वीकार कर उसे आसन पर बैठने के कहते हुए बोला, "कैसी शंका? निःशंकोच होकर पूछो महारथी।"

"सेनापति आज आपका युद्ध सराहनीय था।" अश्वथामा विचारपूर्ण मुद्रा में बोला, "यदि आप चाहते तो आज ही यह युद्ध निर्णीत होकर कोरवो के पक्ष में जा सकता था, परन्तु ऐसा हुआ नहीं, यही मेरी शंका है जिसका समाधान आप ही कर सकते है।"

"अच्छा।" कर्ण थोड़े विचलित स्वर में बोला, "महारथी तुम्हे ऐसा क्यों प्रतीत हुआ कि आज ये युद्ध निर्णीत होकर कोरवो के पक्ष में जा सकता था लेकिन मेरे कारण ऐसा न हो सका?"

"सेनापति मुझे बहुत ही खेद के साथ कहना पड़ता है।" अश्वथामा दुखी स्वर में बोला, "आज आपके समक्ष पाँचो पांडवो में से युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव युद्ध के लिए आए, आपसे पराजित हुए और जीवित बच गए, क्योकि अपने उन्हें जीवित छोड़ दिया। हे श्रेष्ठ धनुर्धर आपने ऐसा क्यों किया?"

कर्ण अश्वथामा की बात सुनकर शांत स्वर में बोला, "तुम्हारी शंका निर्मूल नहीं है; मैंने उन्हें जीवित जाने दिया; मैंने यह किसी कारणवश किया जिसके विषय में आज बताना सम्भव नहीं है।"

"मुझे आश्चर्य है।" अश्वथामा क्लांत स्वर में बोला, "आपने ऐसा किया? मेरे स्वर्गवासी पिता और गंगापुत्र तो पांडवो का वध किसी भी परिस्थिति में नहीं करने वाले थे यह तो सर्वविदित है; परन्तु आपसे यह अपेक्षा न थी कि आप परास्त पांडवो को अभयदान देंगे।"

"महारथी अश्वथामा कदाचित तुम्हे विदित है।" कर्ण विचारपूर्ण मुद्रा में बोला, "स्वयं नारायण इस युद्ध में पांडवो के पक्ष में खड़े है इसलिए उनका वध इतना सरल भी नहीं था लेकिन इस सत्य को नहीं नकार सकता हूँ कि मैंने आज अर्जुन के अतिरिक्त चारो पांडवो को पराजित किया और उन्हें जीवित जाने दिया। इसका जो भी कारण है मैं तुम्हे नहीं बता सकूँगा।"

"यह तो क्षत्रियों की भाषा है अंगराज; आप इस भाषा को क्यों बोल रहे है?" अश्वथामा आश्चर्य से बोला, "आपकी निष्ठा तो आपके मित्र दुर्योधन के प्रति होनी चाहिए परन्तु मुझे ऐसा क्यों नहीं लग रहा है? हे वीर आज आप युद्ध का निर्णय अपने मित्र दुर्योधन के पक्ष में कर सकते थे परन्तु आपने ऐसा नहीं किया यह एक कटु सत्य है।"

"मित्र तुम अपने पिता की मृत्यु से आहत हो इसीलिए इस प्रकार की वार्ता कर रहे हो।" कर्ण बोला, "परन्तु चिंता न करो युद्ध में कल का दिवस निर्णायक होगा।"

"मेरे पिता की मृत्यु के विषय में बात मत कीजिए अंगराज; आप अपने नौ में से आठ पुत्रो का स्मरण कीजिए जो इस युद्ध और पांडवो के कारण परलोक जा चुके है, आज आपने उन कायर पांडवो को जीवित छोड़ते समय अपने पुत्रो का स्मरण भी न किया।" अश्वथामा व्यथित स्वर में बोला, "आप अपने पुत्रों के हत्यारों को जीवित छोड़ सकते है परन्तु ये ब्राह्मणपुत्र अपने स्वर्गीय पिता द्रोण के हत्यारों को कभी क्षमा नहीं करेगा और पहला अवसर मिलते ही उन्हें मृत्युलोक पहुँचा देगा। आपने सही कहा कल का युद्ध निर्णायक होगा क्योकि मैंने आते समय यमदूतों को आपके शिविर में आते देखा है। अब चलता हूँ, प्रणिपात अंगराज।"

अश्वथामा ने चिन्तपूर्ण मुद्रा में बैठे कर्ण की और देखा और उसके शिविर से बाहर चला गया। 



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