फूलदेई की कहानी

फूलदेई की कहानी

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फूलदेई उत्तराखंड का एक विशिष्ट बाल पर्व है। यह

चैत्र महीने की संक्रांति/प्रथम तिथि को बड़े उल्लास से मनाया जाता है। वस्तुत: यह त्यौहार मानव एवं प्रकृति के समन्वय का त्यौहार है। सनातन धर्म में नव वर्ष भी चैत्र मास से ही प्रारम्भ होता है। इस दिन प्रातः काल ही बच्चे अपने घर की देहरी पूजने के बच्चे नहा-धोकर बुरांश, भिटोर, फ्यूँली, आड़ू, खुमानी, पुलम, हाजरी, गुलाब, सरसों आदि के फूल तोड़कर लाते हैं और उन फूलों को थालियों व रिंगाल की छोटी- छोटी टोकरियों में सजाकर रखते हैं। वे इन फूलों से अपने घर में देहरी पूजन करते हैं, तत्पश्चात् फूलों की टोकरी लेकर गांव में घर-घर की देहरी पूजने निकल पड़ते हैं।

लोक में मान्यता है कि सालों पहले एक राजकुमारी का विवाह दूर काले पहाड़ के पार हुआ था, जहां उसे अपने मायके की याद सताती रहती थी । वह अपनी सास से मायके भेजने और अपने परिवार वालों से मिलने की प्रार्थना करती थी, किन्तु उसकी सास उसे उसके मायके नहीं जाने देती थी। मायके की याद में तड़पती राजकुमारी एक दिन मर जाती है और उसके ससुराल वाले राजकुमारी को उसके मायके के पास ही दफना देते हैं और कुछ दिनों के पश्चात एक दिन जिस स्थान पर राजकुमारी को दफनाया गया था, उसी स्थान पर एक खूबसूरत पीले रंग का एक सुंदर फूल खिलता है और उस फूल को 'प्यौली/फ्यौंली' नाम दे दिया जाता है। तब से उसी की याद में पहाड़ में फूलों का त्यौहार यानी फूलदेई पर्व मनाया जाता है।


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